शनिवार, 9 जनवरी 2016

जीवेत शरद: शतम्

एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन २०,००० लोग साठ वर्ष की उम्र पार करते जा रहे हैं. औसत आयु बढ़ने से वृद्ध जनों की संख्या में लगातार इजाफा होना स्वाभाविक है. 

ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में रहने वाले वृद्ध जनों के बारे में लोगों की सोच अलग अलग तरह की होती है. गांवों में जहां भी सभ्य लोग रहते हैं, बुजुर्गों के प्रति सम्मान दर्शाते हैं, लेकिन अधिकाँश निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों में बुड्ढों को बूढ़ा बैल सा समझ कर रखा/पाला जाता है. (अपवाद बहुत से हो सकते हैं) वहाँ बुढ़ापा दिन काटना या मृत्यु का इंतज़ार करने जैसा होता है. ये बहुत गंभीर सामाजिक समस्या है. सरकार के समाज कल्याण विभाग का ध्यान शायद इस पर बहुत कम रहता आया है. शहरों में आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की स्थिति जरूर भिन्न है. वहां वृद्ध लोगों की देखभाल उनके परिजन अच्छी तरह किया करते हैं. भारत में पश्चिमी देशों की तरह वृद्धाश्रमों की संकल्पना नगण्य है. क्योंकि ये हमारी संस्कृति में ये कभी था ही नहीं. पश्चिम की देखादेखी बड़े शहरों में जो वृद्धाश्रम रूपये लेकर चलाये जाते हैं, उनके निवासी मध्य वर्ग के वे लोग हैं जिनकी औलादें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, पर व्यस्तता व खुशामद करने की इल्लत से बचना चाहते हैं. सरकार द्वारा संचालित वृद्धाश्रमों में लाचार व त्यक्त बुजुर्गों की हालत अधिक सोचनीय होती है. प्राय: सुना जाता है कि इन ठिकानों में अधिकाँश वृद्धजन मानसिक रूप से बीमार यानि डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं. अफसोस ये है कि जीवन की आपाधापी में उनकी अपनी औलादें उनको सँभालने की सुध नहीं लेती है.

सरकार ने वृद्धजन हिताय अनेक क़ानून बना रखे हैं, पर वे सब कलह और झगड़े की जड़ साबित होते है. परिवरिश के लिए खर्चा माँगना हक तो है, पर सभी लोग इतने खुशकिस्मत नहीं होते हैं कि उनकी अपनी संतानें उनके दर्द को समझ पायें. प्राय: आज के जिम्मेदार लोग अपनी अगली पीढ़ी के हितों पर केन्द्रित होकर रह जाते हैं. उनको माता-पिता की इस त्रासदी का अहसास तब होता होगा जब वे खुद वृद्धावस्था की सीमा में आने लगते हैं.

बुजुर्ग चाहते हैं उनके बच्चे, जिनके लिए वे ताउम्र खटते रहे थे, अब उनको सम्मान के साथ रखें और उनके स्वास्थ्य की चिंता की जाए. सच तो ये भी है कि नाती-पोते पोतियों के सानिध्य और प्यार-दुलार से अभिभूत होकर ही वे बुढ़ापे की बैतरणी पार कर सकते हैं, पर साइबर युग के बच्चे अपने बुजुर्गों को कहाँ समझ पाते हैं. ये जनरेशन गैप शायद कभी नहीं भर पायेगा. इसलिए हर औलाद की जिम्मेदारी बनती है कि अपने माता-पिता या खानदान में रह रहे बुजुर्गों की देखभाल अवश्य करे. उनके सम्मान का ध्यान रखा जाए.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-01-2016) को "विवेकानन्द का चिंतन" (चर्चा अंक-2217) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    नववर्ष 2016 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
    नववर्ष की बधाई!

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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  3. मकर पर्व की शुभकामनाएं
    seetamni. blogspot. in

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