सोमवार, 3 अगस्त 2015

अंतरद्वंद

जिस तरह से आज हमारे देश में एक आतंकवादी की सजा-ऐ-मौत पर सर्वव्यापी वैचारिक द्वन्द उभर कर सामने आया है, उसमें राजनीति करने वाले नेताओं के निहित स्वार्थ हो सकते हैं, पर मेरे मन-मष्तिष्क में जो द्वन्द परेशान कर रहा है, वह मेरे घर के आँगन में घुस आये एक कोबरा सांप के बारे में है, जिसे कि मैंने अपने हाथों से मारा था.

मैं पहले साँपों से बहुत डरा करता था, लेकिन अपनी लम्बी सर्विस के दौरान राजस्थान के बूंदी जिले में स्थित ए.सी.सी. कालोनी में अकसर साँपों से पाला पड़ता रहता था. वहां सांप घरों में भी घुस आया करते थे. उनको पकड़वाना या मार देना दो ही विकल्प होते थे. धीरे धीरे मेरा सर्पभय कम हो गया. बाद में डिस्कवरी चैनल पर कई बार साँपों/स्नेक पार्कों  के बारे में अनेक जानकारियाँ भी मिली. मुझे इन खतरनाक जंतुओं के व्यवहार जानना व देखना दिलचस्प लगता है. सारे सांप जहरीले नहीं होते हैं, सर्पों के विष से ही उसके बचाव की दवा एंटीवेनम बनाई जाती है. पर्यावरण के लिए भी सांपो का होना जरूरी है. फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले चूहों-कीटों को वे अपना भोजन बनाते रहते हैं.

संस्कृत भाषा में सर्प शब्द का शाब्दिक अर्थ तेज यानि द्रुत है. जिन लोगों ने नहुष राजा की पौराणिक कथा सुनी-पढ़ी है, उनको मालूम है कि इन्द्राणी के प्यार में पागल राजा नहुष को इन्द्राणी ने ऋषियों-मुनियों द्वारा उठाई गयी पालकी में बैठ कर आने को कहा तो उसने डोली उठा कर ले जा रहे लोगों की गति बढाने के लिए उन्हें सर्प-सर्प कह  करके दौड़ाया. परेशान होकर ऋषियों ने उसे श्राप दे दिया कि जा तू सर्प हो जा. इस तरह के अनेक गल्प हमारे प्राचीन साहित्य व धार्मिक पुस्तकों में हैं. शेषनाग की कल्पना, जिस पर धरती टिकी हुयी है, भगवान विष्णु के कमलासन के पीछे बहुमुखी सर्प का छत्र, देवों में महादेव शिव का नागेन्द्रहाराय होना, सर्पराज जन्मेजय तथा भगवतगीता में भगवान कृष्ण का कहना कि शेषनाग भी मैं ही हूँ”,  भागवत की कथा में शापित राजा परीक्षित को सर्प द्वारा काटने का सन्दर्भ, आदि बातें मेरे सनातनी मन पर पूज्य भाव रखती हैं, पर दरवाजे पर आये हुए इस कोबरा सांप को देख कर हिंसक हो जाना बिलकुल नया अनुभव था.

घटनाक्रम इस प्रकार है कि मैं वर्तमान में उत्तराखंड के भाबर क्षेत्र में स्थित  हल्द्वानी शहर के बाहरी इलाके में निवास करता हूँ. कहते हैं कि अनादिकाल से ही ये इलाका बिलकुल जंगल था. मच्छरों, शेरों व जहरीले सापों का अभयारण्य हुआ करता था. आज मच्छरों के विरुद्ध राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध जारी है, एवं शेरों को शिकारियों ने कम करके चिड़ियाघरों या पार्कों तक सीमित कर दिया है. अब बचे रह गए सांप हैं, जो अपने गहरे बिलों में छुपे रहते हैं. अभी भी घोड़ापछाड़, कोबरा, से लेकर अजगर तक यहाँ खूब पाए जाते हैं. जब बारिश का पानी इनके बिलों में भर जाता है, या गर्मी उमस बढ़ जाती है तो राहत के लिए ये बाहर निकल आते हैं. आमतौर पर अस्पतालों में जितने भी सर्पदंश के केस आते हैं, उनसे सिद्ध होता है कि टकराव की स्थिति में ही सांप डंक मारते हैं. अन्यथा वह बहुत डरपोक प्राणी होता है. कोबरा की पहचान उसके चपटे फन से होती है. ये बहुत जहरीला और लड़ाकू प्रवृति का होता है, पीछा भी करता है. यहाँ भाबर में ढाई फुट की लम्बाई वाली कोबरा सांप की प्रजाति को अढ़ाइया सांप भी कहते हैं.

अपने घर में मेरी सेवाओं में, दिन ढलने के बाद, रसोईघर के कूड़ेदान को बाहर आंगन के कोने में रखना भी शामिल है. मैंने बहार की लाईट जलाकर पीछे का दरवाजा खोला तो देखा नीचे साक्षात् सर्पराज फन उठाये हुए मेरे स्वागत के लिए तैयार बैठे थे. एक सिहरन सी बदन में उठी. मैं उसे अपनी नज़रों में रखना चाहता था इसलिए अपनी श्रीमती को आवाज देकर कोई डंडा लाने को कहा, पर मेरे घर में एक लोहे के पाईप के टुकड़े के अलावा कोई लंबा हथियार नहीं था. अत: श्रीमती ने बगल में पश्चिम की तरफ रहने वाले जोशी परिवार को आवाज दी. पंडित चंद्रबल्लभ जोशी एक पांच फुट लम्बे चार इंच चौड़े पतले पट्टे को लेकर आये. मैंने उनको वाकये से अवगत  कराकर दीवार के दूसरी तरफ जाकर प्रहार करने को कहा. वे बहादुरी के साथ गए भी, लेकिन सांप को देखकर बोले, मैंने कभी साप नहीं मारा है, मुझसे ये नहीं होगा।. (बाद में उनकी श्रीमती ने बताया की जोशी जी सापों से बहुत डरते हैं.) तब मैं स्वयं उनसे डंडा लेकर उस तरफ गया और पहले ही प्रहार में खड़े डंडे से उसकी कमर तोड़ दी, उसके बाद वह बहुत गुस्से में व्याकुल होकर अपना फन पटकता रहा. एकाएक उसका फन लकड़ी के नीचे आ गया, जिसे मैंने कुचल डाला. हल्लागुला सुनकर रात में सड़क पर घूमने वाले लोग, पड़ोसी, तमाशबीन जमा हो गए. मैंने अपनी बहादुरी को रंग देते हुए मृत सर्प को पूंछ से पकड़कर उठा लिया और सबके बीच होता हुआ सड़क मार्ग से जाकर नहर के पार फेंक आया.

मेरे ससुराल वालों के इष्ट देव धौलनाग (धवल नाग) हैं उनका भव्य मन्दिर विजयपुर,( कांडा ) में बना हुआ है. धपोलासेरा के धपोला लोग वहाँ के स्थाई पुजारी होते हैं. कूर्मांचल के इस क्षेत्र को नागभूमि के नाम से भी जाना जाता है. नागपंचमी पर समस्त क्षेत्रवासी बड़ी श्रद्धा से पूजा अर्चना भी किया करते हैं. ऐसे मैं, मेरे द्वारा एक नाग का मारा जाना वैचारिक द्वन्द पैदा कर गया कि क्या उसे मारना जरूरी था? उसका अपराध यही था कि वह गलती से या जानबूझ कर मेरे आंगन में आ गया था. भाग इसलिए नहीं पा रहा था कि चिकने फर्श पर उसकी सरपटता काम नहीं कर पा रही थी. परन्तु यह सत्य है कि अनजाने में अगर उस पर पैर पड़ जाता तो वह विषधर मेरा काम तमाम  कर सकता था. मैं पहले अकसर बिना लाईट जलाए भी भोजन के बाद रात्रि में आंगन में घूम लिया करता था, पर अब बहुत सावधान हो गया हूँ. लेकिन उसकी हत्या के अपराधबोध का अंतरद्वन्द मुझे नींद में भी परेशान कर रहा है.
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1 टिप्पणी:

  1. आपका अंतर्द्वंद सही है.. उसे मारने अथवा ना मारने के पीछे कई अंतहीन तर्क-वितर्क हो सकते हैं.

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