गुरुवार, 21 मार्च 2013

मानवाधिकार?

मूल रूप से मनुष्य भी एक जानवर ही है. असभ्यता के दौर में वे सारी विषमताएं रही होंगी जो आज भी हम जंगली जानवरों में देखते हैं. समाज के गठन के बाद एक दूसरे के प्रति किये गए अन्याय के प्रतिकार के लिए सामाजिक कायदे मानवाधिकार की आदि सोच रही है, लेकिन यह सत्य है कि ताकतवर इन्सान अपने से कमजोरों पर हमेशा ही अन्याय करता आ रहा है. यह क्रम आज भी जारी है, चाहे वह शोषण के रूप में हो अथवा राज्य सत्ता की लड़ाई के तौर पर हो रही हो.

प्रबुद्ध लोगों ने इस प्रकार के अन्याय/असमानता के बारे में हमेशा ही सोचा होगा. इतिहास बताता है कि सभी धर्मों के प्रवर्तकों ने अपने उपदेशों मे सदा इस बात पर जोर दिया है. राजाओं/ उपनिवेशों पर काबिज विदेशियों / सैनिक तानाशाहों द्वारा एकतंत्री व्यवस्थाओं में मानवाधिकारों को कोई महत्त्व नहीं दिया.

यूरोप में मानवाधिकारों का सर्वप्रथम दस्तावेज The Twelve Articles Of Black Forest (1525) को माना जाता है. जर्मनी में peasants war (किसानों का विद्रोह) के बाद स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गयी माँग मानवाधिकार की माँग जैसी ही थी. इंग्लैण्ड में भी दमनकारी कार्यकलापों को अवैध करने के लिए ‘ब्रिटिश बिल आफ राइट्स’ सिलसिलेवार लाये गए. १७७६ में संयुक्त राज्य अमेरिका में और १७८९ में फ्रांस में प्रमुख क्रांतियां घटित हुई और मानवाधिकार हनन के मामले सबके सामने आये. जब दमन हुए तो नियम बनाए गए पर वे सब विवादास्पद रहे क्योंकि नियम क़ानून सत्ता में बैठे लोगों ने अपनी सुविधानुसार बनाए थे.

पिछली सदी में विश्व भर में राजनैतिक नवचेतना हुई और स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी / गैर सरकारी संगठन अपने अपने दृष्टिकोण से इस विषय पर नियम क़ानून बनाते रहे, जिनमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता व सामाजिक बराबरी के अधिकारों का प्रावधान किया गया. १९४५ में यूनाइटेड नेशन्स चार्टर में इनका स्पष्ट उल्लेख किया गया. इसी आधार पर १९४८ में ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन’ का नाम देकर सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व वैचारिक स्वतन्त्रता के रूप में प्रकाशित किया गया. हमारे देश के संविधान में ही इन मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गयी है. यहाँ तक कि इनका उल्लंघन करने वालों को सजा का प्रावधान किया गया है.

जब राष्ट्रीय अखण्डता व संप्रुभता की बात आती है तो कोई भी देश अपने अलगाववादियों / विद्रोहियों को दबाने-कुचलने के लिए सारे हथियार इस्तेमाल करता है. इस सन्दर्भ में सारी दुनिया का इतिहास ज्यादतियों से भरा पड़ा है, इसको विस्तार से लिखा जाये तो महाभारत से भी बड़ा ग्रन्थ बन जाएगा.

संयुक्त राज्य अमेरिका, जो अपनी शक्ति व वैभव के बल पर सारी दुनिया में थानेदारी करता है, बहुत से मानवाधिकार उल्लंघन के काले पन्ने उसके नाम हैं. मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पैरोकार आज वही बना है. चीन ने तिब्बत में राजनैतिक व सामाजिक दमन किया हुआ है, यह एक ज्वलंत परिदृश्य है. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत द्वारा काश्मीर के अन्दर की गयी आतंकवादियों तथा अलगाववादियों के विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाही को बहुत जोरशोर से सामने लाया जाता है, पाकिस्तान में बलूचिस्तान, अफगानिस्तान में तालिबानों के जुल्मों की दास्तान रोज अखबारों की सुर्ख़ियों में रहती हैं.

श्रीलंका में अलगाववादी तमिलईलम वालों ने पिछले कई वर्षों से गृहयुद्ध की स्थिति बनाई हुई थी. उनका दुस्साहस ही था कि हमारे एक प्रिय नेता राजीव गाँधी को असमय हमसे छीन लिया. नि:संदेह श्रीलंका की वर्तमान राजपक्षे सरकार ने उनका दमन किया है, पर कोई यह बताए कि देश की अखण्डता को बचाए रखने के लिए दूसरा रास्ता क्या था?

संयुक्त राज्य अमेरिका मानवाधिकार हनन के लिए संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के विरुद्ध प्रस्ताव लाने वाला है. अमेरिका ने लेटिन अमरीकी देशों में ही नहीं, विदेशी भूमि पर वियतनाम से लेकर इराक-अफगानिस्तान तक में जो कार्यवाहियां की हैं उसे अभी लोग भूले नहीं हैं. ऐसे में हमारे तमिलनाडू के सत्ताच्युत  नेता एम. करूणानिधि का राजनैतिक चरित्र देशघाती है क्योंकि भारत के दक्षिण में प्रमुख देश श्रीलंका की अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. राजनैतिक पण्डित जानते हैं कि हमारा खतरनाक अमित्र देश चीन की गिद्धदृष्टि हिंद महासागर के इस क्षेत्र पर रही है. भारत के पैर उखाड़ते ही वह वहाँ पूरी तरह कब्जा जमा लेगा. वैसे भी यह उसका प्रभाव क्षेत्र बनता जा रहा है, मालदीव की हाल की राजनैतिक उठापटक इस बात की गवाह रही हैं.

इस लेख का अर्थ यह नहीं है कि हमें श्रीलंका की सैनिक कार्यवाही में जो तमिलों के मानवाधिकारों का हनन हुआ तथा मासूमों के साथ अत्याचार हुए, उनका समर्थन करना चाहिए, लेकिन हमारे अपने राष्ट्र हित की मजबूरियाँ हैं इसलिए करूणानिधि का केन्द्र से रिश्ते तोड़ने का कोई मलाल नहीं होना चाहिए. द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम ने तमिलनाडू में जनसमर्थन खोने के बावजूद केन्द्र की सत्ता का पूरे चार साल तक आनन्द लिया. कई मौकों पर ब्लैकमेल भी किया. टू जी स्पैक्ट्रम में उसके प्रतिनिधियों के लिप्त होने से पूरी सरकार को बदनामी मिली. यह पार्टी सिर्फ अपने स्वार्थों के लिए केन्द्र के साथ रही. इसके दूसरे साथी अन्ना डी.एम.के. ने इसकी इसकी गर्दन पर फूट का फंदा नहीं डाला होता तो ये खुद भी ‘स्वयंभू’ बन कर अलगाव की बातें करते रहते.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. सब शान्ति से रहें, हिंसा कर अलग रहने का अधिकार तो किसी को भी नहीं होना चाहिये। यह अनाधिकार चेष्टा तो अन्ततः बलपूर्वक ही रोकनी पड़ेगी।

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  2. सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:।
    सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दु:ख भाग भवेत्।।

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