रविवार, 13 जनवरी 2013

बागेश्वर - मेरी यादों में.

मकर संक्रांति – उत्तरायणी के अवसर पर

बागेश्वर (उत्तराखंड) अब एक अलग जिला व जिला मुख्यालय बन गया है.मैं सं १९४९ में कक्षा ६ में दाखिला लेने यहाँ लाया गया था. यह छोटा सा कस्बा मेरे गाँव से ७ मील दूर था. तब यहाँ न तो नल-बिजली होती थी और न मोटर मार्ग था.

मेरे पिताश्री पन्द्रहपाली स्कूल में अध्यापक थे. उन्होंने मुझे अपने सानिंध्य में रखने के लिए अपना स्थानांतरण बागेश्वर के एक स्कूल में कराया था. उनके स्थानांतरण हो जाने तक मुझे मिडिल स्कूल के बोर्डिंग हाउस में रहना पड़ा. बोर्डिंग हाउस, कस्बे के पश्चिमी पहाड़ी के मध्य में काफी ऊंचाई पर जुल्किया एस्टेट में था. वह भवन उसके मालिक किसी साह जी द्वारा स्कूल को दिया गया था. जगह बहुत खूबसूरत थी.

हमारा मिडिल स्कूल आगे जाकर "मोहन जोशी मेमोरियल हायर सेकेण्डरी स्कूल" में विलय कर दिया गया था. स्कूल की लकड़ी की बिल्डिंग रेलगाड़ीनुमा लम्बी कतार में बनी थी.

तब मिडिल स्कूल के हेडमास्टर बिशनसिंह दफौटी थे. उन्होंने पहले कभी मेरे पिता को भी कांडा मिडिल स्कूल में पढ़ाया था. बोर्डिंग में वे स्वयं वार्डन की तरह एक कमरे में रहते थे. मेरी उम्र लगभग ९ साल थी. मैं शाम को जल्दी ही नींद के आगोश में आ जाता था इसलिए दफौटी जी मुझे डांटते थे. इस बारे में मेरे पिता जी ने उनसे बात की तब जाकर मुझे राहत मिली.

पिता जी के बागेश्वर आ जाने के बाद हम रहने के लिए ‘अणा’ के थोकदार जी के बड़े मकान में कस्बे में आ गये थे. यह रावल जी (बागनाथ मंदिर के पुजारी) परिवार के निवास के पास ही था. सँकरे बाजार में पत्थरों का पटांन था, शायद अभी भी होगा. मेरे दो चचेरे भाई भी छोटी कक्षाओं में पढ़ने के लिए वहीं आ गए थे. हम लोग सुबह जल्दी उठ कर सरयू नदी से ताजा पानी भर कर लाते थे. सरयू का उद्गम पिण्डारी ग्लेशियर है, अत: पानी उज्जवल-धवल और स्वच्छ रहता था. घर में प्रकाश के लिए लालटेन जलती थी.

सरयू नदी के उस पार नुमाइश का मैदान था, जहाँ हम लोग शाम को खेलने जाया करते थे. हाई स्कूल तक मैंने कभी सिनेमा नहीं देखा था. एक साह जी के लड़के के घर पर हाथ से घुमाए जाने वाले प्रोजेक्टर द्वारा पहली बार चलचित्र देखा तो बहुत विस्मय हुआ. वहां तब सिनेमा हॉल था भी नहीं. बहुत बाद में एक ओपन-एयर थियेटर आया. बच्चों द्वारा सिनेमा देखना तब बहुत बुरी बात मानी जाती थी.

बागेश्वर की सीमाएं पश्चिम में गोमती नदी के झूला पुल व सराय तक से पूरब में दुग बाजार, उत्तर में कठायतबाड़ा से पहले तक और दक्षिण में बागनाथ मंदिर (संगम) तक सीमित था.

बागनाथ का प्राचीन मंदिर चंद राजाओं के समय का बना है, जो पूरे इलाके के लोगों की आस्था का केन्द्र है. यह शिव मंदिर सरयू और छोटी गोमती के संगम पर स्थित है. संगम के बगड (तट) पर शमशानघाट होने से नित्य चिताएं प्रज्ज्वलित दिखाई देती थी.

बागेश्वर के आस पास रसीले आम व पपीते खूब हुआ करते थे. घाटी होने के कारण गर्मियों में बहुत गरम हो जाता था. तब मक्खियां भी बहुत बढ़ जाया करती थी. गोमती झूला पुल के पास कई जल संचालित ‘घराट’ चलते थे, जहाँ अनाज पीसा जाता था.

पीपल चौक के पास ‘जीवन गाँधी’ की एक साफ़ सुथरी कपड़े की बड़ी दूकान थी. यह गाँधी शब्द उनके साथ इसलिए जुड़ा बताया जाता था कि जब महात्मा गाँधी बागेश्वर पधारे थे तो उन्होंने उस बालक को अपने गोद में उठाया था.

सराय के पास जिला बोर्ड का एक अस्पताल होता था, वहीं सड़क के ऊपर एक छोटा सा मुर्दाघर भी बना था. हमें उस तरफ जाने पर बड़ा डर सा लगता था.

जब गरुड़-बागेश्वर मोटर मार्ग बन रहा था तो लोगों में बहुत उत्साह था. हम स्कूली बच्चे भी श्रमदान करने गए थे. मुझे याद है मैंने भी रवाईखाल के पास फावड़ा चलाया था. जिस दिन पहली जीप बागेश्वर आई थी, जश्न का माहौल था. कुछ लोगों ने जीप पर पैसे उछालते हुए परखे भी थे.

बागनाथ गली के तिराहे पर नाथूलाल साह की मिठाई की दूकान थी, वहाँ की बालमिठाई, कलाकंद, पेड़े व जलेबी का स्वाद आज भी मुझे याद है.

बर्षा ऋतु में दोनों नदियों में बाढ़ आ जाने पर, पानी सीढ़ियों से ऊपर तल्ली बाजार तक घुस आते भी मैंने देखा है. शायद तल्ली बाजार इसीलिये उजड़ गया था.

दुग बाजार सरयू के उस पार था. उसके आखिर में एक ‘शेषशायी पानी की धारा’ थी, जिसमें हमेशा बहुत ठंडा पानी आता था. गर्मियों में ठंडा पानी लेने वालों की वहां पर लाइन लग जाया करती थी.

मकर संक्रांति पर ३ दिनों के लिए पूरे बाजार में उत्तरायणी का मेला लगता था. उस मेले की रौनक देखने लायक होती थी. कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियां बगड़ पर तम्बू लगा कर लाउडस्पीकर से धुआंधार हल्लागुल्ला करती थी. तिब्बत की तरफ से आये हुए भोटिया व्यापारी ऊनी कम्बल, पंखी, थुलम आदि ऊनी उत्पाद बेचने आते थे. पुल पर भीड़ कम करने के लिए लकड़ी के तीन अस्थाई पुल बनाए जाते थे. संक्रांति पर लोगों की आस्था का यह आलम रहता था कि बेहद ठण्ड में सुबह ४ बजे से गंगा स्नान शुरू हो जाता था. जगह जगह अलाव जलाते थे. तब घरों में भी चीड़ की लकड़ी ही ईंधन के रूप में इस्तेमाल होती थी.

बाजार में आम दिनों में चाय की दुकानों पर मसालेदार चने, पकोड़े, खीरे का रायता तथा आलू की गुटखे भुनी हुई लाल मिर्च के साथ खुले में रखे रहते थे. दो पैसे (पुराना पैसा) में एक दोना भर कर मिलता था. यह सामान आज भी वहाँ रेस्टोरेंटों में मिलता ही होगा, पर बचपन में इनकी कुछ और ही बात होती थी.

जिस प्रकार पुरानी दिल्ली आज भी मौजूद है, और दिल्ली के पँख गाजियाबाद, नोयडा, गुडगाँव, हरियाणा तक फ़ैल रहे हैं, उसी तरह बागेश्वर के पँख भी नदीगाँव, बिलोना, कठायतबाड़ा व मण्डल सेरा तक फ़ैल गए हैं.

इन पक्तियों को लिखते हुए मैं उन कलुषविहीन दिनों को याद करके अपने बचपन में लौट जाना चाहता हूँ.
***

4 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन की यादों के मेल,
    मिलकर साथ जहाँ हम खेले।

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  2. यादों' का सुन्दर प्रस्तुतिकरण। ...सादर् आभार।

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  3. .आपकी सद्य टिप्पणियों के लिए

    आभार .

    मुबारक मकर संक्रांति पर्व .

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  4. आभार .

    मुबारक मकर संक्रांति पर्व .

    बागेश्व कल और आज .....बढ़िया संस्मरण बचपन की यादों से जुड़ा हुआ .

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