शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

सेतु


ये आप्तोपदेश है:
          पिता शत्रु ऋणकर्ता
          माता शत्रु व्यभिचारिणी
          संतति शत्रु अपण्डिता
          भार्या शत्रु कुलक्षणी.

इस श्लोक में पति शत्रु की व्याख्या नहीं की गयी है, पर वीणा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि उसका पति देवेश तो हर तरह से उसका शत्रु हो चुका है. अब समझौते की भी कोई गुंजाइश नहीं है, और वह समझौता करना भी नहीं चाहती है. बहुत भुगत लिया है इन दस वर्षों में.

वीणा का विवाह लव मैरेज भी था और अरेंज्ड भी. बड़े अरमानों के साथ उसने वैवाहिक जीवन शुरू किया था, पर देवेश ऐसा निकम्मा निकलेगा उसने सपने में भी नहीं सोचा था. छोटे-मोटे मन मुटाव तो गृहस्थ जीवन में होते रहते है. पर पति निखटटू हो तथा गैर जिम्मेदार हो तो गाड़ी आगे सरकने में कठिनाई आ जाती है. ऐसा ही हुआ इनकी जीवन यात्रा में.

वीणा के पिता हरिनारायण गुप्ता एक उद्योगपति थे. फरीदाबाद में उनका अच्छा कारोबार चल रहा था. वीणा ने देवेश के बारे में अपनी पसंद भाभी के मार्फ़त आपने माता-पिता को बतायी. देवेश उनकी दूर की रिश्तेदारी में ही था पर उसकी डीटेल्स उनको पता नहीं थी. आदमी की शक्ल सूरत व पहनावे से उसके अन्दर के जानवर को नहीं पहचाना जा सकता है. जब आप उसके साथ रहते हैं, उसके बात व्यवहार को भुगतते हैं तभी आपको सच्चाई का अनुभव होता है. देवेश करनाल के किसी सिडकुल फैक्ट्री में सुपरवाइजर के बतौर काम कर रहा था. जब देवेश के पिता माधवानंद अग्रवाल को रिश्ते का पैगाम मिला तो उसकी बांछें खिल गयी क्योंकि हरिनारायण गुप्ता एक नामी-गिरामी व्यक्तित्व था. घूम-धाम से विवाह भी हो गया. दहेज में गृहस्थी का पूरा सामान तो था ही साथ में शहर के मध्य में एक जमीन का प्लाट भी बेटी के नाम रजिस्टर करवा दिया.

माधवानन्द एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति थे. एक छोटी सी परचून की दूकान चलाते थे. उनको पता नहीं था कि बहू के आते ही बेटा पराया हो जायेगा. हरिनारायण ने जब माधवानंद के परिवार का रहन-सहन देखा तो उन्होंने तुरन्त ही प्लाट पर मकान बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी. माधवानंद खुश थे कि समधी जी उनके परिवार के लिए एक बढ़िया घर बनवा रहे हैं. देवेश भी सोच रहा था कि अब बड़े घर में ससुराल हो गयी है तो छोटी-मोटी नौकरी कहाँ लगती है? वह अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाह हो गया और मकान बनाने की सुपरवाइजरी करने लग गया. खर्चे भी रईसी होने लगे. अब उसका अड्डा ससुराल में ही हो गया. ससुर जी ने चार सेटों वाला दुमंजिला मकान बनवा दिया. बढ़िया ढंग से गृहप्रवेश भी हो गया. इस बीच वीणा गर्भवती थी सो एक पुत्र को उसने सकुशल जन्म भी दे दिया. देवेश अपने माँ-बाप व भाईयों से दूर दूर ही रहने लगा. घर का खर्चा पूरी तरह ससुरालियों पर आ गया. ससुर जी ने जब देखा कि जवांई जी बेरोजगार हो गए हैं तो उन्होंने दो लाख रुपयों की इलैक्ट्रोनिक गुड्स की एक दूकान खुलवा दी. देवेश के ठाठ हो गए पर घड़े में छेद हो तो जल्दी खाली होने लगता है. ऐसा ही हुआ दूकान में सामान कम होता गया, खर्चा बढ़ता गया; तीन साल के अन्दर फिर ठिकाने पर वापस आ गया. देवेश के साले इस बात से बहुत खफा थे कि पिता जी देवेश को जरूरत से ज्यादा मदद दे रहे हैं और वह उड़ा रहा है. इसी दौरान हरिनारायण गुप्ता स्वर्ग सिधार गए. देवेश निराधार हो गया. वही हुआ जिसकी बड़े दिनों से आशंका थी. देवेश अपने शौक पूरे करने के लिए वीणा के गहने बेचने लगा. जब पोल खुली तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि वीणा पीहर वालों से देवेश के कारनामे छुपाते आ रही थी. लेकिन जब नौबत बर्तन बेचने की सामने आई तो वह फूट पडी. उसने ससुर माधवानंद को शिकायत की, पर माधवानंद पहले से ही भरे हुए थे. वे इस बात से नाराज थे कि वीणा ने उनके बेटे को परिवार से छीन लिया है अत: उन्होंने वीणा को ही भला-बुरा कह डाला तथा उसके परिवार वालों पर बेइमानी के गंभीर आरोप लगा दिए. बात जब हरिनारायण के लड़कों तक पहुँची तो हालत बदतर हो गए. उन्होंने देवेश के साथ हाथापाई की और घर से बाहर कर दिया. गेट पर देवेश का नामपट्ट भी उखाड फैंका. वकील के मार्फ़त तलाक का नोटिस भिजवा दिया.

जब आदमी बेरोजगार हो, आलसी हो, और बेघर हो जाये तो उसकी दयनीयता का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब उसके पास माँ-बाप के घर जाने के अलावा कोई चारा न रहा. वह अपने बेटे का भी क्लेम नहीं कर सकता था क्योंकि खुद सड़क पर आ गया था. उधर वीणा ने बेटे श्रवणकुमार को शिमला में एक बोर्डिंग स्कूल में डाल कर समझदारी की. स्कूल व होस्टल वालों को ताकीद कर दी कि उसके ससुराल वाले बच्चे से नहीं मिल सकें. यों तो सब टेंसन में थे पर सबसे ज्यादा टेंसन में देवेश की माँ को थी, जो अपने पोते के लिए दिन रात विलाप करती थी.

पाँच साल गुजर गए हैं. इस बीच खबर है कि देवेश में बहुत बदलाव आ गया है. वह पुन: करनाल के ही किसी कारखाने में नौकरी करने लग गया है तुलसीदास जी ने लिखा है का वर्षा जब कृषी सुखाने,’ पर ये भी है कि जिस तरह् मित्रता स्थाई नहीं होती है शत्रुता भी स्थाई नहीं रह सकती है.

श्रवण अब रिश्तों की समझ रखने लगा है. उसे पिता की की कमी हमेशा खलती रही है. एक दिन एकांत में उसने पिता को एक हृदयविदारक पत्र लिख डाला, जो एक काल्पनिक सेतु सा था. वह माँ-बाप दोनों को मिलाना चाहता था. पत्र देवेश को मिलने से पहले ही वीणा के हाथों में पड़ गया.

मानव मन भावनाओं में पिघलता ही है. वह देवेश के साथ बिताये अन्तरंग क्षणों को याद करके विह्वल हो गयी. सोचने लगी रिश्ते इतने बिगड गए हैं, इतनी गांठें इस धागे में पड़ गयी हैं, क्या इनको सुलझाना आसान होगा? इस सेतु को अगर बनाना भी चाहे तो अपनों में इंजीनियर कौन बन सकता है? कौन फटी में पैर डालेगा? भाईयों में बड़े भाई-भाभी कर सकते हैं, लेकिन उसने उनको पहले इतना विपरीत कर रखा है कि शायद ही वे इस सोच को स्वीकारें. रिश्तेदारों में बड़े-बड़े वकील, डाक्टर व प्रशाशनिक अधिकारी लोग हैं पर किसी ने अभी तक उसके इस श्रापित जिंदगी के बारे में आकर कुछ मदद करने की बात की? ये सोचते हुए उसका दिल भर आया. उसके पास इतना बड़ा घर है किराया भी खूब मिलता है, रुपयों की कोई कमी नहीं है, पर जीवन साथी के बिना सब सूना है.

बहुत भावुक क्षणों में उसने वह पत्र भेजूं या ना भेजूं के उधेड़बुन में आखिर पोस्ट कर ही दिया.
                                  ***

4 टिप्‍पणियां:

  1. "फिल्मी ख्वाबो" मे जीने वालो को सबक मिलेगा, --- कहानी का मार्मिक अन्त भी अच्छा है- अस्तु

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  2. कई अर्थों को समेटे हुए एक अच्छी पोस्ट ......

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  3. It is a very good post and relays a very positive message. Good relations always need good care, and it definitely shows that if someone truly repents, he can get redemption..Only I couldn't understand the poetry written in the beginning.

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