बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

मन्थन

सनातन धर्म एक प्राकृत धर्म की तरह विकसित हुआ. जिस तरह डार्विन के विकास-सिद्धांत के अनुसार इस संसार की रचना व वनस्पतियों-प्राणियों का उद्भव या विकास धीरे-धीरे प्रकृति से साम्य बनाते हुए लाखों-करोड़ों वर्षों में वर्तमान स्थिति में हम आये हैं, ठीक उसी तरह हमारे विश्वास व कर्म, धर्म के रूप में परिणत होते गए. धर्म का शाब्दिक अर्थ है धारण करना, यानि जो नियम कायदे आप मान रहे हैं, वही आपका धर्म होता है.

ये हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि अनेकों विश्वासों का जन्म देश-काल व परिस्थितियों के अनुसार बहुत बाद में हुआ और इनमें सुविधानुसार विकृतियाँ भी आती गयी, जिनका विद्रूप स्वरुप हम जातीय दंगों व वर्ग संघर्ष के रूप में स्पष्ट देखते हैं.

सनातन धर्म में वर्ण-व्यवस्था शुद्ध रूप से कर्म के आधार पर थी. एक ही पिता के चार पुत्र अपने व्यवसाय के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होते थे, पर बाद में यह व्यवस्था दूषित होती गयी. और बाद में तो जातियों की भी उपजातियां व छुआछूत जैसी बीमारी समाज को लग गयी. मध्यकाल में देश के सामाजिक व धार्मिक आस्थाओं के विघटन का प्रमुख कारण यही रहा है.

स्वतंत्रता के बाद इस दिशा में बहुत कार्य हुआ है. इसमें महात्मा गाँधी व अंबेडकर साहब जैसे मनीषियों का भारी योगदान रहा है, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था व छुआछूत पर हिदू समाज को नई सोच दी है. इतने बड़े देश में अनेक भाषाओं व संस्कृतियों के कुण्डों को रातों-रात बदलना आसान नहीं है पर जो हो रहा है सही दिशा में है. आज आम लोगों की विचार धारा में कट्टरता कम होती जा रही है जो कि सभ्य समाज का द्योतक है.

विकास की इस भागमभाग में आर्थिक विपिन्नता का बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है. अब अमीर व गरीब जैसी दो जातियां पुरानी व्यवस्था की जगह लेती जा रही है, जो आगे जाकर खतरनाक हो सकती है. इसी विचार से यूरोप में कार्ल मार्क्स  और एंगेल्स के सिद्धान परिणित हुए. कई देशों में उनके गंभीर प्रयोग हुए है, जिन पर सुधारवादी छाया भी आई है. इस प्रकृति का नियम घड़ी सुई की तरह ही है जो कि पीछे की तरफ नहीं चल सकती है.

अब जहाँ तक धर्म शब्द की प्रासंगिकता है आप किसी धर्म को मानो तो ठीक है अन्यथा किसी धर्म को न मानना भी एक धर्म है.
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