मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

रूप-लावण्य


राजा सौमित्र सेन सूर्यवंशी थे. अपने पूर्वजों की ही भाँति उन्होंने भी धर्म की नींव पर अपना साम्राज्य टिकाये रखा था इसलिए सब तरफ से अमन-चैन था. उनकी कार्यकारिणी में अनेकों विद्वान व गुणी जन मौजूद रहते थे. पंडित त्रिपुण्ड भट्ट उनके राज पुरोहित थे, जिनकी पिछली पीढियां भी राज परिवार की पुरोहिती करते आ रहे थे.

सौमित्र सेन का पुत्र विभूति सेन जब यौवन की दहलीज पर पहुँचा तो एक दिन उसने अपने कुलगुरु पंडित त्रिपुण्ड भट्ट की नवयौवना पुत्री वृंदा को देखा तो देखता ही रह गया क्योंकि वह अतीव सुन्दरी और आकर्षक थी. विभूति इतना मोहित हो गया कि अपने नित्य के काम-काज से विमुख रहने लगा. जब सौमित्र सेन ने पुत्र से उसकी परेशानी का कारण पूछा तो उसने सच-सच बता दिया और कहा कि अगर वह वृंदा से विवाह न कर पाया तो अपनी जान दे देगा. उसके इस हठ से पिता को बहुत दु:ख हुआ क्योंकि पंडित त्रिपुण्ड भट्ट उनके कुलपुरोहित के साथ साथ आदरणीय व पूज्य व्यक्ति थे. तत्कालीन वर्णव्यवस्था ऐसी थी कि ब्राह्मण कुल की कन्या क्षत्रिय कुल में नहीं ब्याही जा सकती थी.

समस्या गंभीर थी. समाधान के लिए रास्ता सुझाने के लिए सौमित्र ने क्षमा मांगते हुए कुल गुरु को अपनी उलझन बताना उचित समझा. पंडित त्रिपुण्ड ने जब सारी बात सुनी तो वे सन्न रह गए. उन्होंने कहा, ये अनहोनी नहीं हो सकती है.

पर राजपुत्र था कि अपनी बात पर अड़ा हुआ था. उधर जब पंडित त्रिपुण्ड भट्ट दु:खी रहने लगे. उनका खाना-पीना, पूजा-पाठ असंतुलित सा हो गया तो पुत्री वृंदा ने पिता से इसका कारण जानना चाहा. ना चाहते हुए भी बड़े दु:ख और आक्रोश से ग्रस्त पिता ने पुत्री को राजपुत्र के विकार-भाव के बारे में पूरी बात बता दी और कहा, पुत्री अब हमको इस देश को छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाना होगा क्योंकि जहाँ मान-मर्यादा खतम हो जाये वहाँ रहना नारकीय जीवन जीना जैसे होगा.

विद्वान बाप की विद्वान बेटी वृंदा ने एक क्षण सोच कर कहा, पिता श्री आप परेशान मत होइए, इस समस्या का समाधान मुझ पर छोड़ दीजिए. मैं आपके सम्मान को आघात नहीं पहुचने दूंगी.

पिता ने पूछा, "कैसे? वह नादान लड़का तो बिलकुल दीवाना सा हो रहा है?

आप उसकी चिन्तां न करें. एक बार उसको मुझसे मिलने को कह दें. मैं उसके मोह जाल को काट दूंगी.वृंदा ने कहा. पंडित त्रिपुण्ड ने राजपुत्र को उसके पिता के समक्ष बुला कर कहा, तुम जाकर वृंदा से मिल सकते हो.

युवराज विभूति सेन की बांछें खिल गयी. वह अनेक उपहार लेकर वृंदा से मिलने राज पुरोहित के महल में जा पहुँचा. वृंदा ने उसका यथोचित स्वागत किया. उसकी प्रेमासिक्त बातें सुनी और कहा, हे राजपुत्र! आप मुझे पन्द्रह दिनों के बाद इसी स्थान पर पुन: मिलो. मैं आपके  उपहारों को उसी दिन स्वीकार कर पाऊँगी.

राजपुत्र ने सोचा शायद इस दिन मुहूर्त शुद्ध नहीं था इसलिए वृंदा ने उसको अगली तिथि बताई है.

पन्द्रह दिनों के बाद पुन: विभूति जब सोल्लास कुलगुरु के घर पहुँचा तो बिस्तर पर पडी विन्द्रा को पहले पहचान नहीं पाया क्योंकि उसका चेहरा ज्योतिहीन, म्लान व शरीर बहुत कमजोर हो गया था. विभूति को यह सब अकल्पनीय सा लग रहा था.उसने बड़े विश्मय के साथ पूछा, ये तुमको क्या हो गया है?
कुछ भी तो नहीं हुआ है, बिंद्रा ने जवाब दिया.

तुम्हारी खूबसूरती कहाँ गायब हो गयी? राजपुत्र ने फिर पूछा. इस पर वृंदा ने बाहर बरामदे में रखे एक बड़े घड़े की तरफ इशारा करते हुए बताया, मेरी सारी ख़ूबसूरती उस घड़े में समेट कर रखी है.

जब विभूति ने घड़े का ढक्कन उठाया तो देखा उसमें मल-विस्टा भरा हुआ था, जिसकी दुर्गन्ध पाकर वह पीछे हट गया.
दरसल विन्द्रा ने राजपुत्र को सबक सिखाने के लिए पिछले पन्द्रह दिनों में जमालगोटा जैसी औषधियों का प्रयोग करके अपने उदर की तमाम मल धातुओं को लगातार उत्सर्जित करके घड़े में जमा कर के रखा था. खाया पिया कुछ नहीं तो स्वत: ही शरीर में जल धातुओं की कमी व निकास की वजह से उसका शरीर कांतिहीन तथा कमजोर हो गया था. जिसे देख कर राजपुत्र का मोह भंग हो गया. जिस रूप-लावण्य पर वह मोहित था वह गायब था. उसकी समझ में आ गया कि शरीर के बाहर की सुंदरता क्षणिक है और अंत में उसने अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगते हुए विदा ली.
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