शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

लोक-कल्याण


आज से दो हजार साल पहले की कल्पना कीजिये, न हवाई जहाज, न समुद्री जहाज, न रेल गाड़ी, न मोटर गाड़ी, और न साइकिल. पता नहीं तब बैल गाड़ी भी ईजाद हुई थी या नहीं? पर इतना जरूर था कि सड़कें नहीं थी.

उस युग में जो जहां था, जैसा था; स्थानीय साधनों पर जीता-मरता रहा होगा. कुछ पीर, फकीर, साधू, सन्यासी व घुमक्कड़ लोग देशाटन करते रहे होंगे, जिनका कोई इतिहास-आख्यान मौजूद नहीं है. बहुत बाद से अलबत्ता कुछ यात्रा वृत्तांत लिखा जाने लगा. जिनके सूत्रों को पिरोकर प्रागऐतिहासिक काल से मध्य युग की दूरी का आकलन आज हम करते है. अनेक रिसर्च स्कालरों ने अपनी अपनी लेखनी को टार्च के रूप में प्रयोग करके उस अंधेरी गुफा में रोशन करके देखा है.

कहते हैं कि हिन्दुस्तान से लेकर फारस, मिश्र, तुर्की व यूरोप तक लोग आते जाते थे. कितनी दुष्कर रही होगी उनकी यात्राएँ ये कल्पना मात्र से ही हम सिहर जाते हैं. हिन्दुस्तान के पीर-फकीरों व नजूमियों (ज्योतिषियों) की बाहर बहुत इज्जत होती थी, ऐसा बाहर के देशों के इतिहासों में भी वर्णित मिलता है.

एक बार एक फ़कीर फारस तक पहुँचा तो वहाँ के लोगों ने उसे अपने बादशाह शाह फरत-उल सुलेमान के बारे में शिकवे सुनाये कि वह अनेक वर्षों से शासक था लेकिन जनकल्याण के कोई काम नहीं करता था. लोगों से खूब टैक्स वसूलता था. हर साल अपने महल के सामने सोने का एक चबूतरा बनवाकर अपना शौक पूरा करता था. इस प्रकार ४० चबूतरे वह बनवा चुका था. फ़कीर ने बादशाह की इस बात पर एक सबक सिखाने का मन बनाया और जब महल में हिन्दुस्तान से फ़कीर आने की खबर हुई तो बड़ी आवभगत होने लगी. बादशाह ने उसे अपने साथ भोजन करने का निमंत्रण दे दिया. फारसी भाषा का ज्ञान होने के कारण विचारों का आदान-प्रदान भी होता रहा.

भोजन के उपरान्त बादशाह ने बड़े अदब से फ़कीर को सलाम बजाते हुए कहा, हमारे लायक कोई और खिदमत हो तो जरूर फरमाइए.

फ़कीर इसी आफर की प्रतीक्षा में था. उसने तुरन्त अपने कुर्ते में से एक छोटी सी लोहे की सुई निकाली और बादशाह को सौंपते हुए कहा, अब आपकी व मेरी मुलाक़ात जन्नत में होगी. आप मेहरबानी करके मेरी ये अमानत संभाल कर रख लें तथा वहीं मुझे वापस करें क्योंकि मैं अपने हाथ से ही सिले कपड़े पहनता हूँ. ये मेरे काम आयेगी.

बादशाह फ़कीर की बात को समझ नहीं पाया. बोला, मुझे ये तो बताइये कि इस सुई को मैं वहाँ ले कैसे जाउंगा? क्योंकि मौत के बाद तो सब सांसारिक सामान यहीं रह जाएगा.

फ़कीर ने जवाब दिया, तुम्हारा इतना सोना साथ में जन्नत में जायेगा तो क्या इसके साथ मेरी एक सुई नहीं जा सकती है?

इस व्यंग व आध्यात्मिक उलाहना से बादशाह को ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने तमाम दौलत अपने शेष कार्यकाल में लोक कल्याण के कार्यों में लगा कर इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया.
                                        *** 

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

श्रद्धा-सुमन


हे स्वनाम धन्य भारत माता     
तू जाता असंख्य महाँप्राणों की.
कल्पान्तर में समय समय पर
तेरे असंख्य नाम हुए हैं.
  गरिमा गौरव की गाथाओं में
  तू स्वयं ब्रह्म है, स्वयं विष्णु है,
  परमातम और विधाता भी है.
तेरे ही लिए कहा है नेति नेति
हे प्रकृति! अपरिमित प्राकृत तेरा
ये श्रद्धा के फूल सजा कर
मैं पूजन करता हूँ तेरा.

उतुंग विशाल शीश हिमालय
अडिग शुभ्र अरु पावन.
प्रतीक बना है तेरा ही नित
पय श्रोतों का श्रोत सुहावन.
  पूरब पश्चिम-उत्तर दक्षिण
  चहुँ दिश फैले वन-उपवन
  बहुविध भाषाएँ जन गण
  सर्वस्व सभी कुछ जीवन दर्शन.

खेतों खलिहानों से लेकर
सुरसरि कालिंदी के लहरों तक
अनुपम स्वर संगीतों का लय
उच्छ्वास मातु तेरे ममतामय.
  सागर चरण पखारे अविरल
  नियति सराहे गाकर सरगम
  षट ऋतुओं का मुड-मुड आना
  नित्य नवीन जीवन का क्रम.

हे मातु! सहस्त्रों वर्षों तक
तूने संस्कृतियों को आधार दिए
मानव को मानवता तक लाने के
सत्याचरण के पाठ दिए.
  जो कलुष-विहीन कलामय हो
  अरु स्वर्णिम हो,मैं स्वर्ग कहूँगा ;
  ऐसी धरती पर जन्म सहस्त्रों बार मिले
  मैं फिर फिर जीवन उत्सर्ग करूँगा.
          ****

बुधवार, 28 सितंबर 2011

प्रसंगवश


मेरे एक पाठक ने मुझको लिखा है कि उसकी पढ़ने की आदत बिलकुल छूट गयी थी, लेकिन जब से वह मेरे ब्लॉग पर लिखे कथा-कहानियो को पढ़ने लगा है, उसको पढ़ने में बहुत आनंद आने लगा है.

आज से लगभग ३००० वर्ष पूर्व तक कागज का आविष्कार नहीं हुआ था इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी शिक्षा गुरु से शिष्य को, पिता से पुत्र को या माता से पुत्र-पुत्री को मौखिक सुना कर दी जाती थी. हमारे वेदों को श्रुति इसीलिये कहा जाता है क्योंकि इनको सुन-सुना कर ही अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जाता था.

आज इक्कीसवीं सदी में हमारे पास तमाम विधाओं का विचार, आविष्कार और इतिहास की धरोहर अगली पीढ़ी को देने के लिए तथा उसे सुरक्षित रखने के अनेक साधन उपलब्ध हैं. नई पीढ़ी पहले से बहुत जानकारी रखती है. लेकिन जानकारी की दिशा शुद्ध वैज्ञानिक होने के कारण कई बार छोटे-छोटे ऐतिहासिक तथ्य सामने नहीं आते हैं कुछ इसी प्रकार के मजेदार प्रसंग प्रस्तुत हैं:
                                 (१)
मध्य युग में मंगोलिया का शासक तैमूर लंग बड़ा क्रूर था और विश्व विजयी होने के सपने देखता था. उसे लंग इसलिए कहा जाता था क्योंकि वह एक पैर से लंगड़ा था. उसने परसिया के बादशाह को युद्ध में हरा दिया और जब परसिया के बादशाह को उसके सामने पेश किया गया तो वह जोर-जोर से हँस पड़ा. क्योंकि परसिया का बादशाह शक्ल से बदसूरत व एक आँख से काना था, पर था बड़ा विद्वान. तैमूर को हँसते देख कर वह बोला, तैमूर तू मेरी शक्ल पर हँस रहा है, ये तो अल्लाह की देन है, तू मुझ पर नहीं अल्लाह पर हँस रहा है.

तैमूर लंग बोला, नहीं भाई, मैं इसलिए नहीं हँस रहा हूँ कि तू बदसूरत-काना है, मैं तो इसलिए हँस रहा हूँ कि अल्लाह ने कैसे-कैसे लोगों को बादशाहत दी है? तू काना है और मैं लंगड़ा. जा मैं तुझे आजाद करता हूँ.
                                    (२)
अमेरिका के हेनरी फोर्ड एक समय दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति थे. वे फोर्ड मोटर कंपनी के मालिक थे, पर बहुत ही मितव्ययी थे. उनका कोट पुराना हो गया था और कहीं कहीं से धागे निकल रहे थे यानि फटने लगा था. उनके सेक्रेटरी ने उनसे कहा, अब आपको नया कोट बनवा लेना चाहिए.

वे बोले यहाँ मुझे सब लोग पहचानते हैं. फटा पहनूं या नया पहनूं कोई फर्क नहीं पडेगा.

सेक्रेटरी निरुत्तर हो गया. उसके बाद कुछ दिनों के अंतराल में किसी कार्यवस फ्रांस जाना था. सेक्रेटरी ने फिर उनसे कहा, अब तो आपको नया कोट बनवा ही लेना चाहिए.

इस पर फोर्ड साहब ने कहा मुझे वहाँ कोई नहीं पहचानता है. फटा पहनूं या नया पहनूं कोई फर्क नहीं पडेगा.
                                      (३)
यूनान का शासक अलेक्जेंडर, जिसको सिकंदर भी कहा जाता है, के अनेक किस्से हैं. एक बार उसने अपने अभिन्न मित्र, जो सेनापति भी था को कोई गुप्त बात बताई और कहा कि इसे किसी को बताना मत.

थोड़े दिनों के बाद गुप्तचरों ने खबर दी कि वही बात पूरी सेना में फ़ैली हुई है जो कि सिकंदर ने सेनापति को बताई थी. सिकंदर को अपने मित्र पर बहुत गुस्सा आया. उसको गिरफ्तार कर फाँसी की सजा सुना दी.

ये बात जब सिकंदर के गुरु अरिस्टोटिल उर्फ अरस्तू को मालूम हुई तो उसको बड़ा अफ़सोस हुआ क्योंकि वह सेनापति बहुत योग्य व्यक्ति था. अरस्तू ने आकर सिकंदर से पूछा, सेनापति को मौत की सजा क्यों सुनाई गयी है? तो उसने अपने गुरु को सारी बात बताई.

अरस्तू ने उसकी बात सुनने के बाद कहा, इसमें पहली गलती तुम्हारी है. यदि गुप्त बात बताने की सजा मृत्युदंड है तो पहली फाँसी तुमको होनी चाहिए.

इस प्रकार सेनापति बरी हो गया.
                                   (४)
जार्ज बर्नार्ड शा से मिलने एक सज्जन आये. करीब एक घंटा वे उनके साथ रहे. जार्ज अपनी आदत के अनुसार खूब मजेदार हंसी-मजाक की बातें मेहमान से करते रहे. जाते समय मेहमान ने मैडम शा से कहा, मैडम, शा साहब से मिलकर बहुत आनंद आया. आप तो इनके साथ रहती हैं तो हमेशा इनकी खुशगंवार बातों में आनंदित रहती होंगी?

इस पर श्रीमती शा मुँह बिगाड़ कर बोली, मैं तो इसके सड़े लतीफे सुन-सुन कर तंग आ गयी हूँ. कभी कभी तो मन करता है कि इसका मुँह नोच लूँ.
                                   ____
मेरा लेखन मोनोटोनस न हो जाये इसलिए मैं अलग-अलग विधाओं में लिख कर अपने प्रिय पठाकों को श्रीमती बर्नार्ड शा की स्थिति में आ जाने से बचाना चाहता हूँ.
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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

चढावा


ठाकुर चंद्रप्रताप सिंह के कोई संतान नहीं थी. नि:संतान होना बड़े दु:ख का कारण होता है. हालाँकि संतान के कारण भी  कई लोग ज्यादा दु:खी हो जाते है.  

एक दिन वे पत्नी सहित गाँव के शिव मंदिर में गए और सच्चे मन से उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि उन्हें भी संतान लाभ कराएं. साथ ही उन्होंने भगवान को यह रिश्वत का वायदा भी किया कि अगर संतान प्राप्त हो गयी तो वे एक किलो सोने की घंटी बनवाकर मंदिर को समर्पित करेंगे. भगवान की कृपा या संयोग कुछ भी कहिये एक वर्ष के बाद उनके घर में एक सुन्दर कन्या रत्न उत्पन्न हो गयी.

ठाकुर साहब अपना वायदा भूले नहीं थे. उन्होंने सुनार से एक किलो सोने की घंटी बनवाई और संकल्प पूर्वक मंदिर में ले गए, जहाँ पुजारी ने उसे स्वीकार करने में असमर्थता बता दी. पुजारी का कहना था कि यहाँ लोग पीतल की घंटी नहीं छोड़ते हैं, सोने को कौन छोड़ेगा.

बाद में विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि पूरे मंदिर का जीर्णोद्धार भी कराया जायेगा तथा मजबूत ताला कूची व गेट का इन्तजाम किया जायेगा. शंकर भगवान की नई आदमकद संगेमरमर की मूर्ति लगाई गयी और सोने की घंटी ठीक मूर्ती की सीध में ऊपर गुम्बद पर टांग दी गयी और उसे बजाने के लिए एक पतली सी डोरी बाँध दी गयी.

मंदिर का काम पूरा होने पर प्राण-प्रतिष्ठा व भोग-भोजन सभी हुआ. ठाकुर की मनौती पूरी हो गयी. घंटी की चर्चा गाँव-पड़ोस में दूर दूर तक फ़ैल गयी.

व्यवहारिक जीवन में ताला-शटर तो शरीफ लोगों के लिए होते हैं. एक शातिर चोर घंटी चुराने की फिराक में रहने लगा. एक दिन संध्या के समय झुरमुट अँधेरे में जब बाहर हल्की बारिश भी हो रही थी. पुजारी दिया-आरती करके कहीं निमंत्रण में भोजन करने चला गया तो चोर ने ताला-शटर तोड़ डाला और अन्दर दाखिल हो गया.

चूंकि घंटी ऊंचाई पर थी, इसलिए घंटी उतारने का एक ही उपाय था वह भगवान की मूर्ति पर धीरे धीरे उनके गर्दन तक चढ गया. घंटी हाथ में आते ही खींच ली और उतर कर नीचे आ गया.

अब भगवान शंकर साक्षात प्रकट हो गए और उनको देख कर चोर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. वह घबरा गया और हाथ जोड़ कर मांफी मागने लगा. लेकिन भगवान थे कि त्रिशूल मारने के बजाय उससे हँस कर बोले, भक्त मैं तुझसे बहुत खुश हूँ. मांग क्या वरदान माँगता है?

चोर रिरिया रहा था. भगवान ने फिर कहा तू घबरा मत. क्या चाहिए मांग ले.

चोर को थोड़ी हिम्मत हुई और बोला, भगवान मैं अधम पापी हूँ फिर भी आप किस कारण मुझसे प्रसन्न हो रहे हैं?
भोले बोले, देख! मैंने लाखों-करोड़ों भक्तों को देखा है. कोई फूल चढ़ाता है, कोई पैसा चढ़ाता है, कोई कोई भांग धतूरा चढ़ाता है, कोई दूध चढ़ाता है तो कोई बेल-पत्र चढ़ाता है; लेकिन तेरा जैसा भक्त मेरे पास आज ही आया, तू तो साला पूरा का पूरा मुझ पर चढ़ गया.
                               ****

सोमवार, 26 सितंबर 2011

प्रतिबिम्ब


निशा के देहरी तक आने के पहले पहले
 सांझ की स्वप्निल आभाषों के बिम्ब
  किसी विसरे विम्ब को उद्वेलित कर एकाएक
   उमड़ी घटाओं के दर्शनाथ प्रेरित कर
    भरपूर जलाशय के जाने-पहचाने छोरों पर.

पथ के उबडखाबड पीड़िकाओं को लांघ-लांघ कर
 सुखों के रक्त से रंजित नेत्र-गात्र-मस्तिस्क
  स्मृतियों के बिम्बों को अनमने भावों से धोने को
   बिम्ब सामान विचलित , गहन, पर उथला भी.

पथ के उपपथ पर ही अपश पर प्रसन्न सा पशु
 अपने बिम्ब पर चरता जाता है सस्वाद निरंतर
  बोझिल कल क्या था,क्या होगा आनेवाला भी?
   इन रूढित बिम्बों-प्रतिबिम्बों से हो बेसुध .

जलाशय के मन मंदिर पर मेघ का स्पष्ट बिम्ब
 निष्कपट क्रियाएँ, अठखेलियाँ, मुस्कानों की भरमार
  अम्बार चाह के प्रितिदानों को देखा-भाला
   फिर देखा उसी मेघ के बिम्ब में मचलता एक बिम्ब
    जो अपना था और उस पर बिम्बित था एक सपना
     निशा बढ़ चली देहरी से भी, पर न टला प्रतिबिम्ब.
                     ***    

सन्यासी


पुराणों के अनुसार पृथ्वी पर जो सात व्यक्ति सशरीर अमर हैं, उनमें से एक राजा भृतहरि भी हैं. वे अपनी न्यायप्रियता व कल्याणकारी प्रबृति तथा भगवत भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं. पर विधि-वस कभी-कभी दिव्य पुरुष भी सांसारिक व्यवस्थाओं में दु:खी हो जाते हैं.

एक दिन राजा भृतहरि के सदगुरू ने एक अमृत-फल राजा भृतहरि को दिया और कहा कि इसके खाने से उनका यौवन स्थिर रहेगा और शारीरिक सौष्ठव बना रहेगा.

राजा भृतहरि अपनी पिंगला नाम की रानी (तीसरे नंबर पर) से बहुत प्यार करते थे अत: उन्होंने सोचा कि रानी का यौवन और सुंदरता बनी रहेगी तो वे भी अच्छा अनुभव करते रहेंगे. इसलिए उन्होंने वह अमृत-फल रानी को ये कहते हुए दिया कि इसे खा लेना, इससे तुम्हारा यौवन और सुंदरता हमेशा बने रहेंगे."

रानी ने अमृत-फल खाया नहीं. रानी में चरित्र-दोष था. उसका मित्र कोतवाल आया तो उसने वह फल कोतवाल को खाने को दे दिया ताकि उसका यौवन व सौष्ठव बना रहे. कोतवाल ने भी यह फल खाया नहीं बल्कि अपनी दूसरी महिला मित्र तत्कालीन राज-वैश्या को खाने को दे दिया और बता भी दिया कि इसको खाने से उसकी जवानी और ख़ूबसूरती बनी रहेगी. वैश्या ने फल प्राप्त करने के बाद सोचा, "मैंने तो अपना यह जीवन दुराचरण में व्यतीत कर दिया है यदि ये आगे लम्बा हो गया तो अगले जन्म में अच्छे जीवन की कल्पना नहीं हो सकेगी. क्यों न इस फल को राजा भृतहरि को खिलाया जाये, जिन्होंने अपने सत्कर्मों से सब को अनुगृहीत किया है. वे खायेंगे तो जन कल्याण के लिए उनका लंबा जीवन सभी के लिए वरदान होगा." ये सोच कर वह फल लेकर राजा भृतहरि के पास गयी और अमृत फल राजा को देते हुए बोली, हे राजन! यह अमृत फल है इसके खाने से आपका यौवन तथा सौष्ठव बरकरार रहेगा.” 
राजा ने कहा, लगता है कि तेरा और मेरा सदगुरू एक ही है. तुझको ये फल किसने दिया?

वैश्या ने बताया कि उसको वह फल कोतवाल से मिला है.

कोतवाल से पूछा गया तो उसने सच-सच बता दिया कि उसे ये फल रानी ने उसको दिया था.

यह सुन कर राजा भृतहरि सन्न रह गए, आत्मग्लानि से भर गए और संसार से विरक्त हो गए. सन्यासी बन कर राज महल से निकल गए.
                                      ***

रविवार, 25 सितंबर 2011

नायाब ठगी

चमनलाल खन्ना चौड़ी बाजार में ऊनी कपडे व कम्बलों का व्यवसाय करते हैं, पर उनका दिमाग रात-दिन शेयर मार्केट में चलता रहता है. उनको इन्वैस्टमेंट के इस बिजनेस में महारत हासिल है. वैसे भी वे काफी चतुर-चालाक इंसान हैं. एक दिन एक देहाती सा दिखने वाला आदमी उनके शोरूम के दरवाजे पर आकर बैठ गया. उन्होंने उसको नोटिस किया. जब वह उनकी ओर लगातार नजरें गड़ा कर देखने लगा तो उन्होंने उसको अन्दर बुलाया और पूछा, क्या बात है भाई कैसे बैठे हो? 

वह अधेड़ उम्र का था. मैले कपडे पहने हुए था. बड़े संकोच के साथ उसने अपनी जेब से एक सौ रुपये का नोट निकाला और खन्ना जी की तरफ बढ़ा दिया. मुस्कुराते हुए बोला, "इसको चला दो. मुझको ५० रूपये दे दो.
खन्ना जी ने नोट को देखा-भाला. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है? फिर उन्होंने बड़ी चतुराई से कहा, तू ऐसा कर, कल ले जाना. अभी मेरे पास खुल्ले नहीं हैं.

वह आदमी, अच्छा बाबू जी, कह कर चला गया. खन्ना जी ने अपने मुनीम को पड़ताल के लिए पंजाब नेशनल बैंक में भेजा. मुनीम ने आकार बताया कि नोट असली है. खन्ना जी को फिर भी माजरा समझ में नहीं आया. अगली सुबह जब वह देहाती आया तो खन्ना जी ने उसको ५० रूपये दे दिए. वह खुश हो गया लेकिन गया नहीं, वहीं बैठ गया. खन्ना जी ने कुछ देर में उससे पूछा, अब क्या है? तो उसने सौ रुपये का एक और नोट अपनी अंटी में से निकाल कर बढ़ा दिया. इस पर खन्ना जी कहा, भाई तू कल ही ले जाना अभी छोटे नोट बिलकुल नहीं हैं. ये सुन कर वह चला गया. और दूसरी सुबह उसी भोलेपन से उपस्थित हो गया. इस बीच खन्ना जी ने पहले ही की तरह नोट बैंक भेज कर इन्फ्रारेड मशीन से जाँच कराई तो पाया नोटों में कोई खराबी नही थी. अत: उसके आते ही उन्होंने ५० रूपये उसे थमा दिए. इस बार उसने एक साथ दो नोट निकाले और खन्ना जी को दे दिये. बोला, मुझे बैक जाने में डर लगता है. आप खुल्ले करवा दें. मैं ५० के भाव पर ही आपसे ले लूंगा.
खन्ना जी को बिना मेहनत फायदा हो रहा था वे लालच में आ गए. नोट लेते हुए उन्होंने पूछा, तेरे पास और कितने नोट है?” देहाती ने संकोच करते हुए संख्या तो नहीं बताई पर हाथ फैला कर कहा, इतने सारे हैं. मुझको और मेरे भाई को एक मकान की सफाई में मिले थे. खन्ना जी ने उसी वक्त मुनीम को बैंक भेजा नोटों की जाँच कराई तो पाया नोट असली हैं. अब तुम दोनों भाई सब नोट एक साथ ले आओ मैं तुमको इसी हिसाब से ५० रुपये के नोट दे दूंगा.

देहाती ने बडे भोलेपन से कहा, यहाँ पुलिस छीन लेगी तो?

खन्ना जी थोड़ा सोच कर बोले, तुम लोग मेरे घर पर आ जाना, और मुनीम से कहा कि उसको घर बता आये.

मुनीम उसको साथ ले जाकर खन्ना जी का घर बता आया. देहाती बोल कर गया कि वह रात को अपने भाई के साथ आएगा. उधर खन्ना जी ने दो लाख के ५० के नोटों के साथ-साथ नोटों की परख के लिए एक बैंक कर्मी और सुरक्षा के लिए ४ आदमियों का इंतजाम किया. रात आठ बजे वे दोनों भाई एक बड़े थैले में नोटों के बण्डल लेकर आये. बैठक में बिठा कर पहले उनके नोटों को जांचने का काम शुरू हुआ. सब सही पाए गए फिर जब ५० के नोटों की गिनती हो रही थी तो अचानक पुलिस का छापा पड़ गया. थानेदार के साथ चार सिपाही भी थे. आते ही पहले एक एक डंडा सबको दे मारा फिर थानेदार ने रोबीले अंदाज में पूछा, ये क्या हो रहा है? जुआ खेला जा रहा है?

खन्ना ने कहा कि कुछ हिसाब कर रहे हैं.

थानेदार बोला, मुझे मालूम है तुम कैसा हिसाब करते हो. सब साले दो नम्बर का धन्धा करते हो. सारे नोट समेट कर कहा जीप में बैठो, और चलो थाने, अब हिसाब वहीं करना.
ये सब इतनी आनन्-फानन में हो गया कि खन्ना जी कुछ समझ नही पाए. घबराहट में सभी थे. जीप में बैठ गए. डर के मारे देहाती भाई ज्यादे ही काँप रहे थे. उनमें से एक ने खन्ना जी की तरफ इशारा बताते हुए थानेदार से कहा, हजूर, इनको छोड़ दो रुपयों के इस हिसाब में इनका कोई लेना-देना नहीं है.

थानेदार ने कहा, तू उतर, फालतू जमा हो गया.

इस प्रकार खन्ना जी को उतार कर जीप थाने की ओर चल पडी. रास्ते में देहाती के निवेदन पर पहले बैक कर्मी को फिर मुनीम को भी उतार दिया गया. खन्ना के टीम के अन्य सभी सदस्यों को भी इसी रास्ते में उतार कर जीप चली गयी.

उधर खन्ना जी को पुलिस पर बड़ा गुस्सा आ रहा था. उनके दिमाग में अपने दोस्त विधायक जी का ख्याल आया, तो तुरन्त ही फोन मिलाया और उनको पुलिस की ज्यादती की सारी वारदात कह सुनाई. विधायक जी आधे घन्टे में अपनी गाड़ी सहित आ पहुंचे.और खन्ना जी के साथ सीधे थाने पहुंच गये.

विधायक जी ने थानेदार जी को आदर से नमस्कार करते हुए कहा, ये खन्ना जी मेरे मित्र हैं, शरीफ व्यौपारी है.

थानेदार बोला, आप इलाके के मालिक हैं. मेरे लायक सेवा फरमाइए?

विधायक जी ने कहा, इनके घर से अभी आप जो करीब ४ लाख रूपये जब्त करके लाये हैं वह अवैध धन नहीं है. इनको लौटा दीजिए.

थानेदार भौंचक्का रह गया. बोला, हमने तो कोई रुपया जब्त नहीं किया.

विधायक ने खन्ना की तरफ देख कर इशारा किया, बताओ.

खन्ना जी ने कहा, ये थानेदार साहब तो नहीं थे.

तो कौन था? थानेदार ने कहा. थाने के परिसर के सभी सिपाहियों को बुलाया गया. उनमें से कोई भी नहीं था ऐसा खन्ना ने देख कर तस्दीक किया.

थानेदार ने कहा, इस इलाके में मेरे अलावा तो कोई और थानेदार है ही नहीं. आपको जरूर कोई ठग कर रूपये ले गया

दूसरे दिन अखबार की सुर्ख़ियों में था, "नोट असली, पुलिस नकली."
                                                    ***

शनिवार, 24 सितंबर 2011

पोस्टमॉर्टम


अपने दोस्त तरुण सक्सेना का अन्तिम संस्कार करके उसके क्वाटर पर लौट आया हूँ. मैं उसके बेटे वरुण को अपने साथ ले गया था और अपने साये में ही उसे घर ले आया हूँ. कुछ रिश्तेदारों के अलावा स्टाफ के बहुत से लोग साथ थे और चिता जलने तक काफी लोग जमे रहे लेकिन धीरे-धीरे लोग खिसकते गए. हम आठ-दस जने पूरा जल जाने के बाद ही वापस चले.

वरुण बहुत उदास था. उसकी मन:स्थिति क्या रही होगी ये समझना आसान नहीं था. वह १० वर्ष का बालक पाचवीं कक्षा में पढता था. उसने इससे पहले मृत्यु को इतने करीब से कभी नहीं देखा था. श्मशान में लोग बातें कर रहे थे. कुछ लोग अपनी अपनी चर्चाओं में व्यस्त थे आपस में हँसने की आवाजें भी कई बार आ रही थी. वरुण बारबार मेरे मुँह की तरफ देख कर सिचुएशन पर मेरा रिएक्शन देखना चाहता था. मेरा रिएक्शन यही था कि मैं भी बहुत शोक संतप्त था क्योंकि तरुण को मैंने बहुत नजदीक से देखा व पहचाना था.

मैं उससे सर्व प्रथम मुम्बई चर्च गेट स्टेशन के सामने पश्चिम रेलवे के हेड क्वाटर बिल्डिंग में मिला था. हम दोनों नौकरी के इंटरव्यू के लिए वहाँ गए थे. वह सिविल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा करके 'पी. डब्लू. आई'. के पद के लिये तथा मैं बी. ई. इलेट्रीकल कर के 'जे.ई.' पद के लिए आये थे. दोनों सलेक्ट हो गए और एक ही जगह गंगापुर जंक्शन पर हमारी पोस्टिंग हो गयी. रेलवे कालोनी में दोनों को घर भी अलाट हो गए पर हम दोनों मेरे क्वार्टर में ही रहते थे. तरुण खाना अच्छा बनाता था और मैं अच्छी गप मारता था. बहरहाल उसके और मेरे बीच अभिन्नता हो गयी. करीब दो वर्ष तक हम साथ-साथ रहे फिर दोनों की शादियाँ हो गयी तो थोड़ी दूरियां बन गयी. 


मेरी पत्नी मात्र हाईस्कूल तक पढ़ी थी, लेकिन तरुण की पत्नी एम्. ए. करके किसी प्रोफेसर के अंडर में पी.एच.डी. कर रही थी. उसे जल्दी ही सवाईमाधोपुर कालेज में लेक्चरर की नौकरी मिल भी गयी. अब जुगाड़ करके तरुण ने भी सवाईमाधोपुर में रेलवे क्वार्टर अलाट करवा लिया और वहीं शिफ्ट हो गया. उसका काम गंगापुर से कोटा के बीच रेलवे  ट्रेक की देख-रेख करना था जिसके लिए वह नित्य सुबह चार गैंगमैन साथ लेकर निकल जाता था इस कारण उसका मेरा मिलना जुलना बहुत कम हो गया.

तीन चार साल तक उनका सब ठीक ठाक चल रहा था. एक दिन अचानक श्रीमती ज्योति सक्सेना का ट्रांसफर टोंक शहर के डिग्री कालेज को हो गया. उसने ट्रासफर रुकवाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुई.

इस प्रकार पति पत्नी दूर-दूर हो गए. सप्ताह में एक बार आना जाना होने लगा. वह मुझे एक दिन अचानक लाइन पर मिल गया तो मैंने पाया कि वह बहुत डिस्टर्ब था. उसने ज्यादे बात तो नहीं की पर मैं समझ गया कोई बड़ी बात हुई है अन्यथा वह हँसने-बोलने वाला आदमी दार्शनिक की तरह बातें कर रहा था जैसे जीवन के प्रति उसका मोह भंग हो गया हो.

इस बीच मेरा भी ट्रान्सफर मथुरा जंक्शन पर हो गया. अपनी गृहस्थी और ड्यूटी के चक्कर में समय नहीं निकाल पाया कि उसके हाल-चाल पूछ आऊँ. मुझे एक सहयोगी ने बताया कि तरुण और उसकी पत्नी के रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे है. उसका एक लड़का भी हुआ पर उसने कोई दावत-जलसा भी नहीं किया. ज्योति सक्सेना पी.एच. डी. होने के बाद विभागाध्यक्ष बना दी गयी थी. बाद में मालूम पड़ा कि किसी प्रोफ़ेसर के साथ उसका उठाना-बैठना ज्यादा है. जिसके साथ कुछ आपत्तिजनक फोटो थे और वे तरुण को प्राप्त हो गए थे. ये अन्दर की बात उसके चपरासी ने गुपचुप तरीके से मुझे भी बताई थी. ये भी बताया कि इसी बात से परेशान होकर तरुण तांत्रिकों के चक्कर में पड गया है. उसके आठ अँगुलियों में अंगूठियों का राज तब मेरी समझ में आया. ये ऐसा नाजुक मामला था कि सीधे-सीधे बात करना खतरनाक था. अत: मैंने तरकीब से उसे कुरेदने की कोशिश की लेकिन वह खुला नहीं.

मुझे लगा कि उसको उसकी लम्बी तन्हाई खाए जा रही है और वह अंतर्मुखी और शक्की हो गया है. पर यह अनुमान नहीं था कि वह नुवान पीकर आत्महत्या जैसा कदम उठाएगा.

अब जब हम उसके पार्थिव शरीर को पोस्ट्मॉर्टम करवा कर अन्तिम संस्कार करके उसके क्वार्टर पर शोक संतप्त बैठे है तो आत्मह्त्या के कारणों पर खुसर-पुसर हो रही थी. चर्चाए तो लोगों के बीच पहले से रही होंगी पर खुल कर कोई नहीं बोल रहा था. उसकी पत्नी एकदम निढाल हो कर पडी थी. कुछ रिश्तेदार महिलायें भी आई हुई थी जो सम्हाल रही थी.

उसका उजाड़ घर अपनी सहमी और तिरस्कृत अवधि की कहानी मुँह बोल रही थी, घर का फर्नीचर बेरंग, दीवारें मैली और फर्श जैसे बरसों से साफ़ नहीं किया गया था. आनन्-फानन में टेंट हाउस से मगवाई गयी दरियां बिछाई गयी थी. मैं वहाँ रुकना नहीं चाहता था. देर शाम जब मैं वापस मथुरा को चलने को हुआ तो फार्मेलिटी के तौर पर श्रीमती सक्सेना के पास गया तो वह फूट-फूट कर रोने लगी. बोली, "भैय्या इनको इनके शक ने मार डाला प्रोफ़ेसर वर्मा मेरे राखीबंध भाई है. मैं बहुत सफाई इनको देती रही पर इनके दिमाग में जो कीड़ा घुस गया था वह निकाल नहीं सकी. मैं वरुण की कसम खा कर कहती हूँ कि मैंने तरुण के साथ कभी भी बेवफाई नहीं की. ये कहते हुए वह बेहोश सी हो गयी.

मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. नम आँखों के साथ वरुण के माथे पर हाथ फेरता हुआ बाहर आ गया हूँ. मथुरा जाने वाली गाड़ी का सिगनल हो चुका था. 

                                    ***

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

प्रभु की माया

राजा धर्मवीर का राज्य अरावली पर्वतमाला के मध्य क्षेत्र में बड़ी खूबसूरत जगह पर स्थित था. साम्राज्य बहुत लंबा चौड़ा नहीं था, पर सब तरफ से सुरक्षित व धन-धान्य से संपन्न था. किले की चहारदीवारी बड़ी मजबूती से बनाई गयी थी. क्योंकि उस जमाने में आतताई लुटेरे आकर नुकसान और आतंक कर जाते थे.
     


राजा धर्मवीर बड़े दयालु व धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे. जिस दिन उन्होंने गद्दी सम्हाली, एक ही वाक्य में अपनी नेक नियत का ऐलान कर दिया कि राज्य में रामराज जैसी व्यवस्था रहेगी. उन्होंने अपने शासन काल में अनेक कुँवे-बावड़ी खुदवाए, मंदिर बनवाए और परमार्थ के अनेक कार्य किये. वे अनन्य शिव भक्त थे. नित्य-प्रति उनके महल में पार्थिव पूजा होती रहती थी. भगवान शिव की उन पर बड़ी कृपा भी थी. जब से वे गद्दीनसीन हुए कभी अकाल नहीं पड़ा, न कोई दैवीय आपदा या बीमारी उनके राज्य में हुई. लोग खुश थे, खुशहाल थे. फिर भी राजा शिव-भक्ति में तल्लीन रहते थे. एक दिन भोले बाबा ने देखा कि राजा बहुत तपस्यारत हैं तो उन्होंने साक्षात प्रकट होकर उनको दर्शन दिए और कहा, वत्स! तुमको क्या चाहिए जो इतनी तपस्या को उद्यत हो?

राजा ने भगवान को प्रणाम किया और विनीत स्वर में कहा, प्रभु आपने मुझे सब कुछ दे रखा है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. मैं तो आपके साक्षात दर्शनों का अभिलाषी था सो आपने मुझे दे दिए हैं. ये कहते हुए राजा भोले के चरणों में आ गए. भगवान बहुत प्रसन्न हुए और बोले, कुछ मांगना है तो मांग ले.

राजा ने कहा, मुझे तो आपने मोक्ष के द्वार पर ला दिया है. मैं चाहता हूँ कि आप मेरे किले के अन्दर रहनेवाले समस्त जनता को भी दर्शन देकर सबका तारन कर दें.

शंकर भगवान थोड़े अनमने से हुए और बोले, तेरे किले के अन्दर तो सब तरह के लोग रहते हैं--अच्छे लोग हैं तो बुरे कर्मों वाले भी हैं, चोर, बदमाश, पापी है--उनको मैं कैसे दर्शन दे सकता हूँ? क्योकि कर्मों के आधार पर ही सारी व्यवस्था रखी गयी है.

राजा ने कहा, आपने खुद ही कहा कि कुछ मांग ले, सो मैंने मांग लिया है अब आपकी मर्जी है.

भगवान असमंजस में पड़ गए. उन्होंने ये बात कह कर समस्या का समाधान निकाल लिया कि किले से ५ मील दूर टीले पर उनका एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है, जहाँ पर वे अगले एकादशी को सुबह दूसरी पहर तक दर्शन देंगे. जो भी वहाँ आएगा दर्शन लाभ प्राप्त कर सकेगा. साथ ही उन्होंने राजा को ये ताकीद भी कर दी कि उनके सिपाही लोगों को किले से जबरदस्ती चलने को तो कह सकेंगे पर अगर रास्ते में से कोई लौटना चाहेगा तो उसे रोका नहीं जाएगा. ये कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए.

राजा प्रसन्न हो गए. किले के अन्दर आदेश हो गया कि एकादशी के दिन लूले-लंगड़े, अंधे-काने सबको शिव दर्शन के लिए चलना होगा. हुआ भी यही--सिपाहियों ने बूढ़े-बीमारों तक को किसी न किसी प्रकारं चलने के लिए किले से बाहर कर दिया.

उधर भोले ने ऐसी माया फैलाई कि आधे मील की दूरी पर सडक के दोनों ओर चवन्नी के ढेर लगा दिए. लोग उनको समेटने के लिए टूट पड़े. जिसके पास जो कपड़ा या थैला जैसा भी था भर-भर के उठाये और वापस चल पड़े.
आधे लोग तो चवन्नी में ही शंकर का रूप देख कर घर आ गए.

जलूस आगे चला. अगले आधे मील पर उसी प्रकार अठन्नियाँ पड़ी थी, कमजोर नियत के लोग खुद को नहीं रोक पाए. और अठन्नियों का बोझ लेकर घर आ गए.

इसी प्रकार अगले एक मील के पड़ाव पर शानदार चमकीले चांदी के कलदार रूपये पड़े थे. उससे बड़ा सिक्का हो नहीं सकता था. इसलिए मजबूत इरादों वाले लोग भी रूपये समेट कर चल दिए.

फिर भी जलूस में एक चौथाई लोग बचे थे जिनको ललचाने के लिए सोने की गिन्नियां काफी थे. कारवाँ घटता गया और ४ मील के आख़िरी पडाव पर हीरे और जवाहरात थे. अच्छे अच्छों के नियत डोल गयी. लेकर लौट चले.

राजा जब मंदिर में पहुंचे तो उनके साथ केवल उनकी महारानी और एक साधू ही पहुंचे.

भगवान ने राजा धर्मवीर से पूछा, आनेवाले इतने ही हैं क्या?

राजा ने भोले की वन्दना की और कहा, प्रभु आपकी माया अपरम्पार है.
                               ***
(ये काल्पनिक कथा मैंने बचपन में मानो नेपथ्य में सुनी थी. आज उसी को शब्दबद्ध कर दिया है.)
                               ****

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

साबूदाने का भाव

किशोरीलाल गुप्ता की सदर में परचून की एक भरी-पूरी दूकान है. आधी से भी ज्यादा जिंदगी इसी में निकल गयी. दो बेटियाँ थी समय पर शादी कर दी, ससुराल चली गयी. श्रीमती गुप्ता घर पर अकेली रह गयी इसलिए समय निकाल कर गुप्ता जी वक्त-बेवक्त घर चले आते थे. ताकि घरवाली ज्यादे अकेले ना रहे. घर भी उनका काफी पुराना है. हमेशा नए घर का प्लान बनाते, फिर सोचते क्या करेंगे नया घर बना कर? दो ही प्राणी है. आराम से रह रहे है. बड़ा घर होगा तो पत्नी के लिए और काम बढ़ जाएगा. घर की दीवारें पत्थर-गारे की बनी है. हाँ छत उन्होंने पत्थर के चौड़े पटले डलवाकर मजबूत बनवा रखी है.

बैंक आने-जाने में तथा वहाँ लाइन लगाने की परेशानी की वजह से वे अपनी रोकड़ घर में ही छुपाकर रखते आ रहे थे. वैसे पिछले ३० वर्षों में कभी कोई चोरी-चकारी उनके घर में हुई भी नहीं. यद्यपि घर की सिचुएशन ऐसी है कि यहाँ का हल्ला-गुल्ला पड़ोसियों को नहीं सुनाई दे सकता है.चहारदीवारी से पूरी तरह सुरक्षा का भाव था. एक बार एक कुत्ता जरूर पाला था, पर वह ऐसा ही साधारण रोडेशियन था. राह चलतों को काटने लगा तो भगा दिया.

गर्मियों के दिन थे. दिनभर लू की तपन रहती थी. शाम होते-होते कुछ ठंडक हो जाती थी. श्रीमती गुप्ता पानी छिड़क-छिड़क कर और अच्छा कर लेती थी. घर के अन्दर तो गर्मी के मारे ठहराना मुश्किल होने लगा था. आँगन में दो खाटें डाल कर दोनों मियाँ-बीवी तान कर सोते थे. हवा चलती तो नींद भी बड़ी सुखकर आती थी.

एक बार आधी रात के बाद श्रीमती गुप्ता की आँख खुली. घर में कुछ खटपट होने का आभास हुआ. उसने धीरे से गुप्ता जी को हिलाया और खतरे के सूचना दी. गुप्ता जी उठ बैठे और तुरन्त बनियाबुद्धि का प्रयोग करते हुए बोले, अरे ले जाता है तो ले जाने दे. आजकल सोने-चांदी को कोई नहीं पूछ रहा है. तू तो ये बता वो साबूदाने का थैला कहाँ रखा है?

ये बात इतनी ऊंची आवाज में कही गयी कि अन्दर वाला व्यक्ति भी सुन ले. वास्तव में अन्दर एक चोर घुसा था और बाहर की वार्तालाप पर भी उसने कान लगा रखा था.

श्रीमती गुप्ता बोली, घर में इतना सामान पड़ा है आपको साबूदाने के थैले की पडी है.

गुप्ता जी ने कहा, तुमको मालूम नहीं, जब से लड़ाई लगी है, साबूदाने का भाव ५००० रुपया तोला हो गया है. कहाँ रखा है थैला?

रसोई में ड्रम के बगल में रखा है, श्रीमती गुप्ता ने कहा.

थोड़ी देर रुक कर गुप्ता जी ने खांस कर व हल्ला जैसा कर के किवाडों को खटखटाया, ताला खोला, अन्दर गए तो देखते क्या है कि घर के पिछवाड़े की दीवार तोड़ कर घर में घुसने का रास्ता बना रखा है. दोनों जनों ने छानबीन  करके पाया कि साबूदाने के थैले के अलावा सभी कुछ सुरक्षित अपने स्थान पर था.

गुप्ता जी ने पत्नी से कहा, घर में बहुत सारा रुपया रखा है कल ही बैंक में रख आऊँगा. अगले दिन गुप्ता जी ने घर की मरम्मत करवाई, रूपये बैंक में डाले और दोपहर बाद से नियमित दूकान खोल ली.

उधर चोर साबूदाने का ५ किलो का थैला पाकर बहुत प्रसन्न और उत्साहित था. अगले दिन दूसरे शहर में बेचने के लिए निकल पड़ा पर जहाँ भी भाव पूछता ४०-५० रुपया प्रति किलो से ज्यादा देने को कोई राजी नहीं था. उसने कई दूकानदारों को बताया कि जब से लड़ाई लगी है, साबूदाने का भाव हजारों में चल रहा है. पर सब उसका मखौल उड़ाते थे. थोड़े दिनों के अंतराल में चोर ने सोचा कि साबूदाने का पैकिंग थैला बदल कर सदर बाजार में गुप्ता जी को ही बेचना ठीक रहेगा क्योंकि उसको साबूदाने का बाजार भाव मालूम है. सो वह सीधे उनकी दूकान पर गया बोला, सेठ जी साबूदाना खरीदोगे?

गुप्ता जी ने उसको प्यार भरे निगाहों से देखा और आदर पूर्वक बिठाया. बोले, अरे, तू ही था क्या? थैला क्यों बदल लाया? कीमत तो उसी थैले की थी. इतना कह कर वे हँस पड़े और चोर शर्मिन्दा होकर निकल लिया. गुप्ता जी ने साबूदाने का थैला ठीक से संभाल कर रख लिया.

                                    ***

बुधवार, 21 सितंबर 2011

जय हो

मैं, मैं हूँ
तू, तू है
वह, वह है.
      मैं उत्तर हूँ
      तू दक्षिण है
      वह पूरब है.
धर्म-कर्म में
खान-पान में
बोली-पहनावे में
वर्ण-विचारों में
दिशा-भेद सा
सभी विमुख है.
      मुझको तू
      तुझको मैं
      हमको वह
      अंगीकार नहीं है.
फिर भी सुनते हैं
हम सब एक हैं
कहाँ एक हैं?
हर पहलू में
दीवारें हैं
खंदक हैं.
निजी हितों के पाटों पर-
कहाँ कपाट बनेंगे?
      स्वत: विलगाव रहेगा
      नित टकराव रहेगा.
कुछ लोग हमेशा लेकिन,
भाषण जिनकी रोजी है
कभी एक कह
कभी अनेक कह
पकती जिनकी रोटी है
      चिल्लाते हैं
      दिखलाते हैं 
      सिखलाते हैं
ये भारत है
एक राष्ट्र है
एक देश के तुम
अनेक इकाई हो.
      पर लड़ो
      ये नदी तेरी है
      ये भाषा उसकी है
      ये वसीयत मेरी है
      लड़ना एक दिलेरी है.
हम तुम्हारे नेता है
राजनैतिक अभिनेता हैं
हमको मानो, अपना जानो.
हम तुमको खुशहाल करेंगे
राष्ट्र को बेमिसाल करेंगे.
      आपस में पर दूर रहो
      देश एक है पर
      तुम एक नहीं हो.
अजब पहेली है
हम एक नहीं है पर
अनेक भी नहीं हैं.
      आओ मिल बैठो
      हम खुद सुलझाएं
       इस भूल-भुलैया को
सुख से जीना
बस एक समस्या
हम सबका उद्देश्य बना है.
       मुझको तुझसे क्या रंजिश है?
       तुझको मुझसे क्या रंजिश है?
       उसको हमसे क्या रंजिश है?
कुछ भी नहीं-
बस एक अंदेशा भर है.
       तेरा रक्त
       मेरा रक्त
       उसका रक्त
       कोई अंतर नहीं है इनमें 
फिर कहाँ भेद है-
पहनावे में?
       ठण्डी में मोटा लंबा
       गर्मी में हल्का छोटा
       ये तो कोई भेद नहीं है.
सब धर्मों का सार यही है
सत्याचरण, पर-सुख चिंतन
तुम अपने तौर तरीके से,
हम अपने तौर तरीके से
करें साधना-
लक्ष्य एक है.
       अब रहा राष्ट्र
मैं, तू और वो
तीनों से ही राष्ट्र बनेगा.
       अपनी-अपनी भाषा में-
        बोलो भारत माता की जय.
हम सब का अब एक ही उत्तर
हम भारत के हैं.
राजनीति बस रहने दो
हम प्रेमनीति अपनायेगे.
हम भारतीय अरु भारतीयता
आबाद रहे! आबाद रहे!

        ***

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

यादें (आत्म-कथा से )

२० सितम्बर मेरे स्वर्गीय पिता श्री प्रेमवल्लभ पाण्डेय की पुण्यतिथि है. आज ही के दिन सन १९८० मे वे हमसे हमेशा के लिए विदा हुए थे.
 
सन १९५५ में मेरे पिता ने अपने पैतृक गाँव गौरीउडियार की जमीन-मकान बेच दिया था और गरुड़-बैजनाथ के पास सैण (मैदान) कत्यूर में १५ नाली सेरे की जमीन खरीदी. स्यालटीट-मटेना में एक छोटा सा दुमंजिला घर बनवाया. वे अध्यापक थे. प्रगतिशील विचारों वाले और दूरदर्शी भी थे. उन्होंने अपने बच्चों के भविष्य के बारे में अच्छा ही सोचा था. दरसल इस स्थानान्तरण के पीछे और भी अनेक कारण थे. उन्होंने अपनी नौकरी की बदली भी नजदीक में गागरीगोल विद्यालय में करवा ली.

परिवार का ये माइग्रेशन हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के शरणार्थियों की तरह ही कष्टदायक व असुविधापूर्ण रहा. ये स्थान गौरीउडियार से करीब १५ मील दूर था, लेकिन नजदीक का रास्ता पहाड़ लांघ कर बनता था. हाउस-होल्ड सामान ढोने-ढुलवाने में पिता जी आधे रह गए थे. मैं तब इंटर फाईनल में कांडा में पढता था. मुझे तो सब जमा-जमाया मिला. ५ भाइयों में मेरे पिता सबसे छोटे थे इसलिए दादी हमारे साथ रहती थी. कहते हैं कि इस स्थानांतरण की प्रेरणा दादी ने ही दी थी. क्योंकि उस गाँव का सामाजिक व्यवहार बहुत बिगड़ा हुआ था. आपस में कलह, दुश्मनी, चोरी-चकारी बहुत होने लगी थी; अन्यथा कई मायनों में वह गाँव आदर्श था.

नए गाँव का नाम स्यालटीट-मटेना था. स्यालटीट का शाब्दिक अर्थ है, सियारों का मैदान. सियार तो वहाँ आज भी बहुतायत में एक साथ मिलकर हूटर बजाते हैं. पिता जी ने अपने सपनों का घर बनाते हुए, घर के आस-पास अनेक फल-फूलों के पौंधे लगाए. नाशपाती, आलूबुखारा, आडू, केला, अखरोट व नीबू प्रजाति के गलगल, चकोतरा तथा माता ककड़ी के पेड़ थे. गूल से सीधे हौज में पानी लाने की व्यवस्था भी कर रखी थी. कत्यूर के लोग शाक-सब्जी नहीं उगाते थे पिता जी ने सब्जी उगा कर सबको बता दिया कि मेहनत करने से सब कुछ हो सकता है.

मैं कालांतर में दिल्ली विश्वविद्यालय होता हुआ नौकरी में राजस्थान में कोटा के निकट लाखेरी चला गया. पिता जी १९७० में प्रधानाध्यापक के पद से रिटायर हो गये. छोटा भाई बसंतबल्लभ (जो वर्तमान में एक कालेज प्रिंसिपल है) गनाई-गंगोली में अध्यापक हो गया था. हम दोनों बेटों से पिता जी का नियमित संवाद पत्र द्वारा हर सप्ताह होता रहता था. 

जिस जगह पर हमारा घर बना था वहाँ दीमकों का जबरदस्त प्रकोप था. जिसका कोई स्थाई इलाज पिता जी को मालूम न था. इस कारण वे बहुत दु:खी रहते थे. दीमक ने घर की छत तक की लकड़ी चट कर डाली थी और मिट्टी गिरती रहती थी. गर्मियों की छुट्टियाँ होने पर मैं अपने बीबी-बच्चों सहित घर आ जाता था. इसी तरह बसंत की भी छुट्टियाँ होती थी तो सारा परिवार मिलता था.तीनों बहिनें भी नजदीक के गाँवों में क्रमश: मोतीसारी. तिलसारी व सिल्ली में ब्याही गयी थी. इस पैराडाईज में हम सब कुटम्बीजन मिलन व स्नेह का जो आनद पाते थे उसका मैं आज शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता हूँ.

जून में पहाड़ में वर्षा हो जाती है और हमारी छत दीमक के नुकसान के कारण जगह-जगह से टपकने लगती थी. मैं पिता जी की आँखों में तब असह्य वेदना देखा करता था. ठीक बच्चों का घर आना, वर्षा का होना और छत का टपकना. मकान के उपरी मंजिल के बांसे-डंडे तो उन्होंने दो तीन बार बदलवा डाले थे किन्तु पहली मंजिल पर जो मोटा भराणा था वह नहीं बदला जा सका, हाँ सुरक्षा के लिए गोठ के बीच में पत्थरों का एक स्तंभ दे दिया गया था. फिर भी एक बड़ा हादसा हो गया. कि एक शाम जब मेरी माँ बसंत के एक वर्षीय पुत्र हेम को गोद में लेकर अंगीठी सेक रही थी तो उस जगह पाल बैठ गयी. माँ हेम सहित नीचे भैस के खूंटे पर जा गिरी. पिता जी को बहुत देर में समझ में आया कि हुआ क्या था ? अन्यथा वे भयभीत हो गए कि कहीं बाघ उठाकर न ले गया हो.

भैस ने बड़ी समझदारी रखी कि कोई शारारिक क्षति दादी-पोते को नहीं हुई. हाँ मेरी माँ, जिसकी प्राकृतिक मृत्यु बाद में सन १९९७ में हुई, आखिर तक कहती थी क़ि खूंटे से उसकी कमर पर जो आघात हुआ उसका दर्द उसे सालता था.

पिता जी की मृत्युपरांत माँ हमारे साथ रहने लगी पर ज्यादा समय उसने बसंत के परिवार के साथ शांतिपुरी में बिताया.

हम पाँचों भाई-बहनों के विवाहोत्सव इसी घर में हुए. अब वह प्यारा सा पिता जी के सपनों का घर छूट गया है और टूट भी गया है. हम दोनों भाई हल्द्वानी आ बसे हैं.

                                   ***

सोमवार, 19 सितंबर 2011

चुहुल – ४


                                    (१)
  गुरु प्राचीनानंद प्रवचन कर रहे थे. भारी जन समूह सुन रहा था. प्रवचन के बीच में किसी सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि उनकी खुद की उम्र १००० वर्ष हो गयी है. ये बात श्रोताओं को हजम होने वाली नहीं थी. श्रोताओं के बीच में गुरू जी का एक चेला भी गेरुए वस्त्रों में विराजमान था. उसके बगल में बैठे एक युवक ने उससे कहा, तुम्हारा गुरू तो गप मार रहा है.

इस पर चेला बड़ी संजीदगी से बोला, हाँ, गप तो मुझे भी लगती है पर एक बात कहूँ, मैं इनको ५०० वर्षों से ऐसा का ऐसा देख रहा हूँ.

                                     **

                                    (२)
पंडित कृष्णवल्लभ त्रिपाठी शास्त्री 'भागवत की कथा' सुना रहे थे पांडाल में उस दिन श्रोता कम ही थे. चौधरी सोजत सिंह की माता जी, जिनकी उम्र लगभग ७५ वर्ष थी, महिलाओं की अग्रिम पंक्ति में आकार बैठ गयी. वह हाल में राजस्थान के किसी देहात से बच्चों से मिलने दिल्ली आई थी.

बात दिल्ली विश्वविद्यालय के मौरिस नगर कैम्पस की है. त्रिपाठी जी संस्कृत के श्लोकों के साथ साथ उनका शुद्ध हिन्दी में तर्जुमा करके सुना रहे थे. बीच-बीच में राधेश्यामी तर्ज पर पूरी तल्लीनता के साथ भजन भी सुना रहे थे.
माता जी उनके प्रवचन व भजनों से इतनी विह्वल हो गयी कि जब जब पंडित जी गाते तो माता जी की अश्रुधारा रोके नहीं रुक रही थी. कथा के अंत में तो वह सुबुकने लगी.

पंडित जी ये नजारा साफ़ देख रहे थे क्योंकि वह वृद्धा ठीक उनके सामने बैठी थी. अत: कथा समाप्ति पर आरती से पहले ही उन्होंने माता जी को अपने व्यास गद्दी के पास बुलाया और श्रोताओं को बताया कि माता जी कितनी भाव विह्वल हो रही थी, कथा में किस कदर डूब कर आनन्दित हो रही थी. उन्होंने माता जी से भी पूछना उचित समझा कि वह क्यों इतनी भाव विभोर हो रही थी?

माता जी ने ठेठ देहाती लहजे में बोला, मन्ने थारी बात पल्ले ना पढ़ी, पण थारी ओडाट सुन कर मान्ने अपनी भैस याद आगी, वो भी थारे नाई आवाज काढ़े थी. पिछले साल मरगी बेचारी.

श्रोता हँसते-हँसते लोटपोट हो गए और पंडित जी खिसिया कर मौन हो गए.

                                         **

                                         (३)
एक गुरु-चेला किसी धर्मशाला में ठहरे थे. थके हुए थे लेट गए. थोड़ी देर बाद गुरू ने चेले से कहा, बाहर देख कर आ बारिश तो नहीं हो रही है?
चेले ने जवाब दिया, गुरु, ये आपके बगल में बिल्ली बैठी है, अभी अभी बाहर से आई है. आप इसकी पीठ पर हाथ फिरा कर देख लो गीली है तो समझो बारिश हो रही है अन्यथा नहीं.
थोड़ी देर बाद गुरू ने फिर कहा, ये लाईट आँखों में लग रही है, आफ कर दे.
चेला बोला, गुरू, क्यों फालतू कष्ट दे रहे हो? आँखें बंद कर लो समझो कि लाईट बंद है.
गुरू को उसकी बात अच्छी नहीं लग रही थी फिर भी कह डाला, अच्छा, जा किवाड़ तो बंद करके आ.
चेले ने जवाब दिया, गुरू आप भी अजीब हो. सारा काम मुझसे करवाते हो. एक काम आप भी तो कर लो.

                                    ***