गुरुवार, 25 अगस्त 2011

रिश्ता बराबरी का

   इन्दरगढ़ एक छोटी सी रियासत थी, जो अब कोटा जिले का हिस्सा है. अरावली पर्वतमाला की पश्चिममुखी उपत्यिका पर लाल पत्थरों से बना एक किला है; जो अब मधुमक्खियों द्वारा छोड़े गए छत्ते की तरह वीरान पड़ा है. किसी समय यह आबाद होगा, अब न राजा है और न दरबारी लोग. किले के नीचे किलेबंदी अब कई जगह से टूट चुकी है फिर भी पुराने घरों में अभी भी बस्ती है. परचून की पुरानी पुस्तैनी दुकानें, कचोरी समोसा जलेबी वाली हलवाई की भट्टियां, सुनार-लोहार की दुकानें, तांगे-घोड़े वाले सभी कुछ आम राजस्थानी ग्रामीण परिवेश में एक सदी पुरानी व्यवस्था; जैसे यहाँ समय ठहर सा रहा है.

  बहुत से लोग यहाँ से निकल गए हैं. सामर्थ्यवान लोगों ने कोटा या जयपुर में अपने व्यापारिक केन्द्र बना लिए हैं. अनाज का थोक धंधा करने वाले लोग रेलवे स्टेशन के पास सुमेरर्गंज मंडी में नए जमाने के घर बना कर रहने लगे है. इस कहानी के महानायक नेमीचंद जैन ने अपना पैतृक घर और कारोबार नहीं छोड़ा. हाँ, उनके दोनों लड़के नए जमाने के व्यापारी हैं--बड़ा नोपराम अनाज का थोक व्यापार सुमेरर्गंज मंडी से करता है और छोटा गोपराम कोटा गुमानपुरा में इलोक्ट्रोनिक उत्पादों की बड़ी दूकान करता है. लक्ष्मी की इस परिवार पर पहले से ही बड़ी कृपा रही है. राजा के जमाने से उनके दादा, परदादा, फिर पिता साहूकारी का काम करते थे. साथ में सोने-चांदी का कारोबार भी चलता था. सहूकारी इतनी बड़ी कि आस पास गांवों के तमाम लोग उनके कर्जदार थे. ये आपसी विश्वास का भी धंधा रहा है. पुराने लोग ईमानदार भी बहुत थे. पगडी या मूंछ का बाल तक गिरवी रख कर हजारों का कर्जा ले जाते थी. पिछले कई दशकों से जेवर या जमीन गिरवी रखने का ट्रेंड भी चल पड़ा है.

  नेमीचंद के भण्डार में कई मन चांदी और सोने के गहने गिरवी के रूप में रखे हुए थे. कुछ तो टाइम बार होने की वजह से जब्त भी हो चुके थे. अंदर की बात तो ये भी थी कि उनके पास सोने की ईटें व चांदी की सिल्लियाँ रखी थी. वे करोड़ों के मालिक थे. पर उन्होंने कभी अभिमान नहीं दिखाया. बोलने में मीठे, पहनने में मोटा कपड़ा, मैली पगड़ी और घिसी-पिटी देशी जूतियाँ. कोई दिखावा नहीं. उनके कोई मुनीम नहीं था; खुद ही बही लिखते थे. दो कारीगर जरूर रखे थे, जो जेवरात बनाते रहते थे. दड़बेनुमे पुराने घर के अगले हिस्से में उनकी बैठक थी. वे बड़े भाग्यशाली थे कि घर में सब लोग उनकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते थे. नोपराम की बेटी, सन्तोष, सयानी हो रही थी, उसने बी.ए. पास कर लिया था. अत: नेमीचंद को उसकी शादी की चिंता खाई जा रही थी. वे उसके लिए कोई डाक्टर, वकील या बड़े कारोबारी लडके की तलाश में थे. उनके बहनोई अमीरचंद जैन ने उनको बताया कि इंदौर, मध्यप्रदेश में हुकमचंद जैन एक अच्छे घराने के सेठ हैं और उनका भी ज्वैलरी का कारोबार है. उनका एक पुत्र विवाह योग्य है.
 
  एक शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में सभी तीर्थांकरों को प्रणाम करके नेमीचंद इंदौर पहुच गए. ट्रेन लेट होने के कारण दोपहर तक ही वहाँ पहुचे थे, इसलिए उन्होंने न्यू पलासिया में उनके घर जाने के बजाय पहले राजवाडा में उनके शो-रूम में मिलने का विचार किया. हुकमचंद एण्ड सन्स ज्वैलर्स का बड़ा बोर्ड देख कर उनको बड़ी प्रसन्नता
हुई. गनमैन गार्ड ने दरवाजा खोला. वे अंदर दाखिल हुए शो-रूम पर नजर डाली. कांच के शो-केसों में सजा हुआ भव्य दर्शन, वे मन ही मन सन्तोष के भाग्य को सराहने लगे. सेल्स-गर्ल लपक कर उनके पास आई पूछा, क्या चाहिए? नेमीचंद ने कहा, हुकम चंद जी से मिलना है. सेल्स गर्ल ने कांच के केबिन में बैठे हुए व्यक्ति की ओर
इशारा करते हुए जवाब दिया, बॉस अंदर हैं, चले जाइये. नेमीचंद बड़े आत्म-विश्वास के साथ केबिन में दाखिल हो गए. हुकमचंद उस वक्त अपने लैपटाप पर अंगुलियां फिरा रहे थे. उनको देखकर अपनी रिवाल्विंग चेयर घुमाई और मुस्कुराते हुए देखा. नेमीचंद ने जय जिनेन्द्र कह कर अभिवादन किया. प्रत्युतर उन्ही शब्दों में मिला.

  हुकुमचंद जैन क्रीम कलर के रेशमी लिवास में थे, गोल्डन फ्रेम का चश्मा, गले में सोने की मोटी चेन, और हाथ की अंगुलिओं में लाल, हरी, व सफ़ेद नगों वाली अंगूठिया. सब मिलकर संभ्रान्ति का द्योतक. हुकमचंद के कुछ पूछने से पहले ही नेमीचंद बोले, मैं नेमीचंद जैन हूँ. इन्दरगढ से आया हूँ. हुकुमचंद ने सामान्य ढंग से पूछा, बोलिए, मै आपके लिए क्या कर सकता हूँ? कुर्सी में बैठते हुए बिना लाग लपेट के नेमीचंद बोले, मैंने सुना है कि आपका बेटा शादी के लायक है इसलिए रिश्ता मांगने आया हूँ.

  हुकमचंद ने उस ग्रामीण गणवेश में मैले कपडे-जूते वाले व्यक्ति को सर से पैर तक बड़े विस्मय से देखा और कुछ देर तक सोचता रहा, थोड़ा मुस्कुराया भी. फिर बोला, देखो भाई तुम गलत जगह आ गए हो. शादी ब्याह रिश्तेदारी बराबरी में होती है. आप ऐसा कीजिये, पीछे मेरा कारखाना है वहाँ बहुत से कारीगर हैं, उनमें से कोई लड़का देख लो. ऐसा कह कर वे फिर लैपटॉप पर व्यस्त हो गए.

  नेमीचंद अवाक रह गए. काटो तो खून नहीं. इतनी उम्मीद ले कर आये थे. एक झटके में सब तहस नहस हो गया. वे बैठे बैठे सोच ही रहे थे कि हुकंमचंद ने जोर देकर कहा, जाईए-जाईए, मेरे यहाँ आपका रिश्ता नहीं हो सकता है. नेमीचंद किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर बाहर निकल आये. सोचने लगे, इतना घमंड है इस आदमी को. अच्छा हुआ इससे रिश्ता नहीं हुआ अन्यथा बाद में शर्मिन्दा होना पड़ता. वे पैदल ही चल पड़े, गुस्सा अंदर ही अंदर उबाल दे रहा था. वे फिर लौट कर शो-रूम पर आये. गार्ड से कारखाने के बारे में पूछा. कारखाना नजदीक ही था. वह वहाँ गए तो देखा दस पन्द्रह लोग सुनारी का काम कर रहे थे. वहाँ आधुनिक मशीनें भी लगाई गयी थी. उनकी आखें जो तलाश रही थी वह उनके सामने था, नाम था विमल जैन. उम्र २५ वर्ष. वह यहाँ कारीगर था. उसके पिता ने भी उम्रभर यहीं काम किया था. जब आखें जवाब दे गयी तब घर बैठ गए. नेमीचंद ने बिना ज्यादे परिचय बढाए विमल से कहा कि वे उसके माँ-बाप से मिलना चाहते है. विमल काम से छुट्टी लेकर नेमीचंद को अपने घर ले गया. वहाँ परिचय और बातचीत बिलकुल दूसरे ढंग से हुई और दोनों पक्षों ने मित्रता स्वीकार कर ली. नेमीचंद ने उनसे कहा कि फिलहाल इस बात को गुप्त ही रखा जाए. बुकिंग के तौर पर वे विमल के हाथ में पांच स्वर्ण-मुद्राएं रख आये.

  नोपराम को इंदौर भेज कर न्यू पलासिया में ठीक हुकमचंद की कोठी के सामने जमीन खरीद कर एक बड़े प्रोजेक्ट की शुरुआत की गयी. हुकुमचंद को हवा नहीं लगने दी गयी कि कोठी कौन बनवा रहा है. कोठी इतनी भव्य
और सुन्दर बनाई गयी कि सामने वाली कोठी उन्नीस लगे. अंदर संगेमरमर व ग्रेनाइट का फर्श ऐसा कि नजर फिसले, काष्ट का कलात्मक उपयोग सब कुछ आर्कीटेक्ट के अनुसार. गार्डन का लैंडस्केप नयनाभिराम था.

  सन्तोष का विवाह बड़ी धूम-धाम व रीति रिवाज से हुआ. दहेज में वह कोठी तथा तमाम सामान जो की सुविधाओं के अंतर्गत आते हैं जैसे कार, एयर-कंडीशनर, फ्रिज, टेलीविजन, आदि सभी कुछ दिया गया साथ में शो-रूम खोलने के लिए रकम अलग से. शादी का रिसेप्शन इसी बंगले में किया गया. सभी रिश्तेदार थे. विमल ने अपने मालिक की नौकरी हाल में छोड़ दी थी क्योंकि उसे अब नौकरी की जरूरत नहीं थी. उसने हुकमचंद को सपरिवार आमन्त्रित किया था. हुकमचंद को जब मालूम हुआ कि सामने वाली कोठी विमल को दहेज में मिली है तो वह अपनी उत्कंठा को रोक नहीं पाए.वे रिसेप्शन में भाग लेने आये तो दरवाजे पर विमल के साथ उसके दादा ससुर नेमीचंद जैन भी अपनी देशी लिवास में (इस बार साफ़-सुथरी) आगंतुकों का स्वागत कर रहे थे.

  हुकमचंद को वह दृश्य याद आ गया जब उसने नेमीचंद को दुत्कार लगाई थी. आज वह अपने व्यवहार पर मन ही मन अफ़सोस कर रहा था. कह कुछ नहीं पाए, पर एक खिसियानी मुस्कराहट चेहरे पर थी.
                                 ***

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें