बुधवार, 17 अगस्त 2011

फिक्स्ड टाइम

          उत्तराखंड में बागेश्वर अब एक नया जिला बन गया है, तब यह अल्मोड़ा जिले का हिस्सा होता था. बागेश्वर क़स्बा सरयू और गोमती नदियों के संगम पर बसा एक व्यापारिक केंद्र के साथ-साथ भगवान् बागनाथ का मंदिर होने के कारण हिन्दुओं के आस्था का केंद्र भी है. आज का बागेश्वर, मंडल सेरा से बिलोना तक नदी गांव से कठायत बाड़ा तक सारी जमीन घेर चुका है. नगरपालिका अब महांनगरपालिका  होने की स्थिति में आ गयी है. समर्थ लोग गांव से सरक कर शहर में आते जा रहे हैं.

           आज भी बाजार के नाम से ही पुकारा जाता है. इधर कत्यूरबाजार, सरयू के उस पार दुग बाजार  कहलाता है. संगम होने से मुर्दे भी यहीं लाये जाते हैं. दूर दूर के गांवों की कुशल-बात भी आने जाने वालों से इस तरह मिल जाती है.

            यह घटना स्वतंत्रता प्राप्ति से कुछ वर्ष पूर्व की है. दुग बाजार में पुल के मुहाने पर पंडित शिवदत्त की एक बड़ी दूकान थी. सस्ते व अच्छे कपड़ों के लिए उनकी दूकान प्रसिद्ध थी. आम ग्रामीण लोगों की जरूरत का कपड़ा वहाँ मिलता था. पंडित शिवदत्त बड़े धार्मिक और कर्मकांडी थे. वे रहते थे नुमाईश के खेत के पास, जहाँ उनका खोली वाला दुमंजिला मकान था. पीछे की तरफ खेत थे. उन्होंने उस तरफ अपनी खिड़की रक्खी थी.

          घर के पिछवाड़े वाली जमीन किसी प्यारेलाल टम्टा की थी. प्यारेलाल ताम्बे के गागर बनाने और मरम्मत का काम करता था. उसकी भट्टी तो दुग बाजार में ही थी पर रहने के लिए एक छोटा सा ग्वाड़   (गोशाला) जैसा घर पंडित जी के पीछे बना रखा था. जब वह अक्सर बीमार रहने लगा तो उसने अपनी जमीन   बेच कर अल्मोड़ा अपने भाई के पास जाने का निर्णय किया. उसने पहले पंडित जी से बात की पर पंडित जी ने लेने से इनकार कर दिया, तब उसने उस आधी नाली जमीन को मात्र दो सौ रुपयों में हाजी अल्लारक्खा को बेच दी.

          शहर में गिने-चुने मुसलमान थे. अल्लारक्खा कई साल पहले हल्द्वानी से यहाँ आकर तम्बाकू का धंधा करता था. वह पिंडी वाला खुशबूदार तम्बाकू मंगवाता था. खुद भी खमीर डालकर बनाता था. धंधा खूब चला. कत्यूर बाजार में एक बड़ी दूकान भी खरीद ली. दो साल पहले वह हज भी कर आया. उसकी खासियत यह थी कि वह बड़ा नेक और शिष्ट व्यक्ति था. हिन्दुओं के बीच रहकर कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया कि वह समाज से अलग है. प्यारेलाल वाली जमीन पर उसने दो कमरों वाला एक छोटा सा घर बनवाया. जब से वह हज करके आया पाँचों टाइम नमाज पढ़ता था. नमाज पढने के आगन में एक चबूतरा भी बनवाया. अब नमाज पढ़ने के लिए वह चबूतरे पर आता और सुबह-शाम "अल्लाह-ओ-अकबर" बोलकर अजान देता था. नमाज तो ईश्वर की प्रार्थना है किसको ऐतराज हो सकता है? पर नहीं, पंडित शिवदत्त को यह खूब अखर रहा था कि उनकी खिड़की के पीछे कोई मुसलमान इस तरह बांग दे. अल्लारक्खा को बुलाकर उन्होंने कहा, "इस तरह का हल्ला-गुल्ला मेरी खिड़की पर मत किया कर." हाजी ने उनको बताया कि "ये तो इबादत है, और अपने चबूतरे पर किया जा रहा है," लेकिन पंडित जी नहीं माने. क्रोधित हो गए. अगले दिन से जब भी हाजी नमाज पढने आयें घंटी और शंख बजा कर खलल डालने की कोशिश करने लगे. हाजी ने बड़े मातबर व्यापारियों से इस मामले में मदद की गुजारिश की, किसनलाल साह, प्रेमसिंह परिहार, नाथूलाल हलवाई आदि लोगों ने पंडित शिवदत्त से वार्ता की लेकिन वे अपने रवैये पर अडिग रहे. हाजी को किसी ने सलाह दी कि वह इस मामले में मुंशिफ कोर्ट में शिकायत करे. मुंशिफ कोर्ट अल्मोड़ा शहर में था. 

          कोर्ट में मामला चला, पेशियाँ हुई. हाजी के वकील ने अदालत से कहा, "यह धार्मिक आस्था का विषय है
अगर समझौते से इसका निपटारा करेंगे तो सद्भाव बना रहेगा." जज हिन्दू थे, बड़े पशोपेश में थे. बड़ी चतुराई से उन्होंने इस केस को सेशन कोर्ट नैनीताल को रेफर कर दिया. जहां जज थे मिस्टर ईडनबर्ग.वे भी बड़े न्यायप्रिय व्यक्ति थे.

          दूसरी पेशी में उन्होंने पंडित जी से अपनी घंटी और शंख लाने को कहा तथा पूछा कि वे किस प्रकार बजाते हैं? पंडित जी ने शंख बजा कर अदालत को गुंजायमान कर दिया, और घंटी बजा के वातावरण को
झनझना दिया. अब हाजी साहब से कहा गया कि वे कैसे अजान देते हैं? हाजी ने लम्बे हाथ से सलाम करते हुए कहा, "हुजूर मैं ऐसे बेटाइम अजान नहीं दे सकता हूँ." सारा मामला मोड़ ले चुका था. जज साहब ने फैसला दिया कि "हाजी अल्लारक्खा का टाइम फिक्स रहता है इसलिए पंडित जी अपनी पूजा इनकी नमाज के वख्त न करें." बाद में बटवारे के समय हाजी अल्लारक्खा परिवार सहित पाकिस्तान चले गए.

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