सोमवार, 15 अगस्त 2011

सफ़ेद-काले धंधे

         वे अगर आज ज़िंदा होते तो सतासी साल के होते. बीस साल पहले ह्रदय-गति रुकने से वे मृत्यु को प्राप्त हो गए थे. नाम था हयातसिंह बिष्ट. गोरे-चिट्टे, सुन्दर नाक-नक्श, हल्की मूंछे, गहरी भोंहें और चेहरे पर रौनक; उस पर उजली गाँधी टोपी व खादी का लिबास. ये था उनका प्रथम दृष्टया परिचय. 

          सूपड़ा गाँव के काशीसिंह उनके पिता थे १५ नाली नाप की और इतनी ही बेनाप की जमीन थी. आम कुमाउनी काश्तकार की तरह सीमित साधनों से जी रहे थे. १७ साल की उम्र में रोजगार की तलाश में गाँव के खीमसिंह उर्फ़ खिमदा के साथ मुम्बई आ गए थे. गाँव पड़ोस के अन्य लड़के भी उनकी ही तरह मुम्बई आते रहते थे. मुम्बई में बहुत काम था और कमाई भी. कपडे की मिलों में बतौर कुली सब खप जाते थे.

          मुम्बई तब अशांत क्षेत्र हो चला था, साम्प्रदायिक सौहार्द्य अक्सर बिगड़ जाता था उधर आजादी की जंग जोरों पर थी. बलिदान का जुनून था. एक दिन हयातसिंह को उसके साथियों सहित पुलिस ने पकड़ लिया आरोप था दंगा करना और लूटपाट करना. लापता होने पर इधर घरवाले परेशान रहे. जमानत कराने वाला कोई नहीं था. तीन साल तक मुम्बई की जेल में रहना पडा. बाद में व्यक्तिगत मुचलकों पर छोड़ दिया गया. जेल में रहने का एक फायदा ये हुआ कि कांग्रेसी नेताओं से उनका सानिध्य हुआ. उनको भी कांग्रेसी जमात में मान लिया. वे गांधी टोपी पहन कर घर लौट आये. पहाड़ में भी आजादी की तेज बयार थी और जल्दी ही परिणाम सामने आया  और देश आजाद हो गया.

         इन्कलाब आने से सारे देश में नई राजनैतिक संस्कृति का उदय हो रहा था. कांग्रेस जन सब जगह पूजनीय व आदरणीय हो गए. दिल्ली में नए संविधान सभा की प्रक्रिया चल पडी थी. जो ज्यादा पढ़े-लिखे कांग्रेसी थे, ख़ास तौर पर वकील लोग कुर्सियों के बटवारे में व्यस्त हो गए, छुटभय्ये अभी भी दरी-जाजम बिछाने में थे पर अधिकाँश नेता राष्ट्रभक्त थे. 

          हयातसिंह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए कुर्सियों की दौड़ में अग्रिम पंक्ति तक नहीं पहुच सके. इतना जरूर था कि सीधे मुख्यमंत्रियों तक उनका परिचय था. तब उत्तर प्रदेश  खंडित नहीं था. १९५२ से लेकर बहुत बाद तक उन्होंने कई बार विधान सभा का टिकट पार्टी से मांगा लेकिन वे जिला परिषद् के अध्यक्ष पद से ऊपर नहीं उठ सके. यद्यपि बाद में वे सीनिअर नेताओं की सूची में आ गए थे पर तब वे अपने व्यापारिक कार्यकलापों में व्यस्त रहने लगे. खुले में एक खादी भण्डार बहुत अच्छा चल रहा था जिसे उनका बड़ा लड़का देखता था. सिमार मे एक बिरोजा का कारखाना उन्होंने लगवाया जिसे मझला लड़का देखता था. तीसरा लड़का कुछ आवारा किस्म का था, जिसे खडिया खदानों में अपने मामा के साथ लगा रखा था.

          बिष्ट जी के आगे पीछे अनेक कृपाकांक्षी लोग घूमते थे. उनकी  सिफारिश सरकारी दफतरों में बड़े-बड़े काम हो जाते थे. उनके हाथ में चलते-फिरते एक कतुवा जरूर रहता था. फुर्सत में वे हमेशा ऊन कातते हुए दीखते थे. लोगों को सलाह देते थे कि ऊन काता करें. ऊन उनके खादी भण्डार पर पर्याप्त उपलब्ध रहता था. कत्यूर घाटी में उन्होंने अपना एक ४ खण्डों वाला लेंटर डाला हुआ दुमजिला मकान बनवाया, जिसमें  सभी आधुनिक सुविधाएं थी. नदी तट से कुछ दूरी पर बोरवेल खुदवाकर पानी घर तक ले जाने के लिए पम्प लगाया. स्वतन्त्रता सेनानी का ताम्रपत्र-धारी होने के फलस्वरूप उनको पेंसन, बस का परमिट, और भाबर में ७ एकड़ जमीन भी अलाटेड थी.

          उनकी मृत्यु के बाद अल्मोड़ा और नैनीताल के बैंकों में इतने रुपये निकले कि तीनों लड़कों को बँटवारे में ७५-७५ लाख रुपये मिले. छोटा लड़का थोड़ा शैतान था घर की बात सड़क पर ले आया. उसको शिकायत थी कि उसको पूरा हिस्सा नहीं मिला. उसी ने जग जाहिर किया कि सोमेश्वर और बैजनाथ दो जगह फर्जी अनाथाश्रम चलते थे. बिष्ट जी की मिलीभगत जिले से लेकर लखनऊ तक समाज कल्याण विभाग में और लाखों रुपयों का  ग्रान्ट आपस में बंटता रहा था. पहले तो लोगों को बिश्वास ही नहीं हुआ पर सच्चाई उजागर हो गयी. बाद में कुछ जांच पड़ताल भी हुई पर रिजल्ट में लीपापोती हो गयी क्योंकि अनेक लोग इसमें शामिल रहे होंगे.

                                                                    ***

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